पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तत्वज्ञान | # ५०५ - D मिलता है। हम यह मान सकते हैं कि है, और यहाँसे लौटता है। तथापि जब अम्ब सारा प्रात्मा पुरुषके शरीरमें प्रवेश कि उपनिषदोंमें यह गति बतलाई गई है, करता है और वहाँसे रेतके किसी स्पर्म- तब फिर वह महाभारतकारको अवश्य में वह समाविष्ट होता है। स्वीकार होनी चाहिए । भगवडीतांमें अंग्छा, अब हम इस प्रश्नकी ओर "अग्निज्योतिरहः शुक्लः पगमासा उत्तराय. पाते हैं कि प्रात्मा जब शरीरसे निकल णम्" इत्यादि श्लोकमें उत्तरगति बतलाई जाता सब वह कहां और कैसे जाता है। गई है। अग्नि.ज्योतिः (प्रकाश) दिल यह पहले ही बतलाया गया है कि वह शुक्लपक्ष, उत्तरायणके मार्गसे योगीका दिखाई नहीं देता, अर्थात् बाहर निकलते आत्मा सूर्यलोकको जाकर, वहाँसे फिर समय उसे मानवी दृष्टिसे नहीं देख ब्रह्मलोकको जाता है। परन्तु अन्य पुण्य- सकते । कहते हैं कि मरनेवाले प्राणीको वान् प्राणियोंका आत्मा, वाहे काँचके सन्दूकमें ही क्यों न रखो, 'धृमोरात्रिस्तथा कृष्णः परमासादक्षिणायनम् तथापि निकल जानेवाला प्रात्मा दिखाई नत्र चान्द्रमसे ज्योतियोगी प्रात्यनिवर्तते॥ नहीं देगा-इस प्रकार वह शरीरके भिन्न धूम रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायनके भिन्न अवयवोंसे बाहर निकलता है । मार्गसे चन्द्रनक जाकर, फिर वहाँसे शान्ति पर्वके ३१७ वें अध्यायमें यह बत- पुनरावृत्ति पाता है-अर्थात् मुक्त नहीं लाया गया है, कि योगीका श्रात्मा भिन्न होता । इन सबको देवता माना है। उप. भिन्न अवयवोंसे निकलकर कहाँ कहाँ जाता निषदों में यह भी कहा है कि चन्द्रलोकमें है। वह पैरोसे निकलकर विष्णुलोकको प्रात्मा कुछ दिनतक निवास करता है। जाता है, जङ्घासे निकला हुश्रा वसुलोक- नत्वज्ञानियोंका यह खयाल है कि चन्द्र- को जाता है, इत्यादि वर्णन है। अर्थात् लोक पितगेका लोक है । पाश्चात्य भौतिक यह कहा है कि जिस अवयवसे वह शास्त्र-वेत्ता भी कहते हैं कि चन्द्रलोक निकलता है, उसी अवयवके देवताके मत है-अर्थात ज्योतिर्विदोका मत है लोकमें वह जाता है। सिरसे जब वह कि चन्द्र पर कोई जीवित वस्तु नहीं निकलता है, तब उसे ब्रह्मलोकका स्थान है। चन्द्रलोकसे लौटते हुए आकाश, प्राप्त होता है । यह कल्पना उपनिषदोंमें वहाँसे वायु, वायुसे पृथ्वी, वहाँसे अन्न भो पाई जाती है और लोग ऐसा समझते और अन्न द्वारा पुरुषके पेटमें आहुनिरूप- हैं कि योगी और वेदान्तीका प्राणोत्क्रमण से उसका प्रवेश होता है। ब्रह्मरन्धले अर्थात् सिरकी खोपड़ीसे अभी ऊपर आत्माके जानेके जिस होता है। मार्गका वर्णन किया गया, उसे पितृयाण- देवयान और पितृयाण। पथ कहते हैं । जो पुग्यवान प्राणी यज्ञादि सकाम कर्म करते हैं, अथवा कृमाँ, . परन्तु यह देवलोककी गति सभी तालाव इत्यादि बैंधवाकर परोपकारके प्रालियोंको नहीं मिलती। कहते हैं कि कार्य करते हैं, उनके आत्मा इस मार्गसे साधारणतया भात्मा शरीरसे निकलकर जाते हैं। इसके भी पहले जो मार्ग बंत- चन्द्रसभेकको जाता है । महाभारतमें इस लाया है, वह देवयान पथके नामसे प्रसिद्ध विषयका विस्तारपूर्वक वर्णन कहीं दिखाई है। वह सूर्यलोकके द्वारा ब्रह्मलोकको नहीं देता किमात्मा चन्द्रलोकको जाता जाता है और वहाँसे फिर उसकी पुनरा.