पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५३७

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५०६ नहीं होता कि अन्य प्राणी अन्य बातोंमें रहता है, वह तीसरा स्वरूप है। इस प्रकार- स्त हैं। हृदयमें रहनेवाला अंगुष्ठप्रमाण के, परमात्माके, भिन्न भिन्न सम्बन्धसे मात्मा यद्यपि अदृश्य है. तथापि वही उत्पन्न होनेवाले तीन स्वरूप ग्रीक तत्व- मादि परमेश्वर है। ऐसे सनातन भग- वेत्ताओंने भी माने हैं। प्लेटो-मतवादियों- वानको योगी अपने में ही देखते हैं।" ने ईश्वरी श्रमूर्तिकी कल्पना की है, और महाभारतका उपर्युक्त परब्रह्म-वर्णन प्लेटोके नवीन मतानुयायियोंका भी ऐसा बहुत ही वक्तृत्वपूर्ण है। परन्तु कुछ गूढ़ भी ही मत था। उन्होंने उसके जो नाम दिये है। उसमें अवर्णनीय परब्रह्मके वर्णनका हैं, वे इस प्रकार हैं:-अद्वितीय, बुद्धि प्रयत्न किया गया है। वह यद्यपि उपनि- और जीवात्मा । उनका मत इस प्रकार पदोके वर्णनकी भाँति हृदयङ्गम नहीं है, है-"जिस समय परमात्मा अपनी ही तथापि सरस और मन पर छाप ओर झुका, उस समय अपने ही प्रति बैठानेवाला है। पाश्चात्य तत्ववेत्तात्रीने विचार उत्पन्न हवा । यही उसकी बखि भी परमेश्वरका स्वरूप परमात्मा कहकर है। परमेश्वर कहते हैं सर्वशक्तिमन्वको । ही वर्णन किया है । परमात्मा और इस प्रकार उससे मानों बुद्धिका विभाग जीवात्मा, ये दो प्रान्मा प्लेटोके तत्वज्ञान- हुमा । उस बुद्धिने उस सर्वशक्तिमत्वका को स्वीकार हैं। परन्तु उपर्युक्त वर्णनमें चिन्तन किया। इस रीतिसे बुद्धिमें अहं- इससे भी आगे कदम बढ़ाया गया है। भावना उत्पन्न हुई: बुद्धिमें हजारों कल्प- परमेश्वर सृष्टिका आदि कारण है। वही नाएं उत्पन्न हुई : जीवात्मामें हजारों रूपों- सृष्टिका उपादान भी है । वह अविनाशी का प्रतिबिम्ब पड़ा: अव्यक्त पर उनका और सर्वशक्तिमान है। वह इस संसार- प्रभाव हुश्रा और सृष्टिका भारी प्रवाह का भी कारण है। उसीसे सब जीवात्मा प्रारम्भ हुश्रा "साख्योकमतानुसार भी उत्पन्न हुए है । पक्षी कामरूपी पंखके प्रकृति यानी जगत्के आदि कारण और सहारेसे सुवर्णके ही समान चमकनेवाले स्थूल सृष्टिके मध्य दो सीढ़ियाँ इसी संसारमें फिरते हैं । मनुष्योंको इन कामों- ' प्रकार हैं। पहली सीढ़ी महत् है: अर्थात् का निरोध करके, वनमें जाकर, नियम- प्रकृति अथवा अव्यक्त जो स्वस्थ था, उसमें युक्त रहकर, अपनी बुद्धिसे जगत्के हलचल उत्पन्न हुई । अहङ्कार दूसरी उत्पनकर्ताका ध्यान करना चाहिए, इससे सीढ़ी है: अर्थात् प्रकृतिमें स्वशक्तिकी अहं- उनको अक्षय सुख प्राप्त होगा। मनुष्यका भावना जागृत हुई। उसके होते ही पंच- आत्मा और परमात्मा एक हैं । इस महाभूत उत्पन्न हुए: और सृष्टिक्रम शुरू एकत्वका जब मनुष्यको अनुभव होता है, हुआ । वेदान्तियोके मतसे भी इसी तब वह नित्य मुखका अनुभव करता है। प्रकारकी, आत्माकी, सीढ़ियाँ लगी हुई यही संक्षेपमें इसका तात्पर्य है । इसमें पर- हैं: और उन्होंने भी महान आत्मा अथवा मेश्वरकी तीन विभूतियोंका वर्णन किया, बुद्धि और अहङ्कारकी कल्पना की है। गया है। जिस समय केवल परमात्मा अवि- तात्पर्य यह है कि, इस ऊँची-नीची सृष्टि कृप्त होता है, उस समयका एक स्वरूप, और अज, अनादि, पूर्ण, निष्क्रिय, निरिच्छ, जिस समय वह सृष्टिरूप होता है, उस निर्विकार प्रात्माका सम्बन्ध जोड़ते हुए समयका दूसरा स्वरूप, और जिस समय बीचमें ईश्वरी शक्तिकी दो तीन सीढ़ियाँ वह मनुष्यके हृदयमें जीवान्माके रूपसे माननी पड़ती हैं. यह स्पष्ट है।