- तत्वान।
त्थान है। बौद्धों और जैनीका नो संसार । वैश्यों और शूद्रोका, राजनैतिक विषयोसे त्यागके लिए पूर्ण प्राग्रह था। इसी लिए प्रायः सम्बन्ध नहीं रहा था। इस कारण उन्होंने भिक्षुसङ्गकी संस्था स्थापित की राज्य-सम्बन्धी व्यवहारके विषयमें उनको तथा बौद्ध और जैन भिक्षुके नातेसे इसी चिन्ता नहीं रही । राष्ट्रीय जीवनकी अहं. कारण प्रसिद्ध हुए। इस बातका एक भावना उनके अन्दरसे नष्ट हो गई और प्रकारसे आश्चर्य ही मालूम होता है कि जिसे देखिए, वही अपने सुख-दुःखोसे भारतीय मार्योंके अधिकांश तत्वज्ञानका व्याप्त हो गया, और शायद इसीसे साधा- साधारणतया संसारत्यागके लिए आग्रह | रण लोगोंमें और ब्राह्मण वर्णमें भी ऐसी है। क्योंकि जिस देशमें वे रहते थे, उसमें कल्पना फैल गई कि, वास्तवमें संसार सब प्रकारके भौतिक सुखसाधन पूर्णतया दुःखमय है। प्रस्तु: इस बातका कारण भरे हुए थे। अर्थात् संसारसे उद्विग्नता। कुछ भी हो, इसमे सन्देह नहीं कि भार पानेके लिए भारतवर्ष में कोई परिस्थिति तीय प्राचीन आर्य तत्वज्ञानोंका झुकाव अनुकूल न थी। कदाचित् यह भी हो यही माननेकी ओर है कि, संसार दुःख- सकेगा कि, भारती आर्योका स्वभाव मय है। ऐसी दशामें अवश्य ही उनका प्रारम्भसे ही वैराग्ययुक्त हो और सम्पूर्ण यह मत होना स्वाभाविक है कि, संसार. देशकी राज्यव्यवस्था भी धीरे धीरे उनके के पुनर्जन्मके फेरेसे छूटनेका सरल और मनकी पूर्व-प्रवृत्तिमें दृढ़ता लानेके लिए एकमात्र उपाय संसार-त्याग ही है। साधनीभूत हो गई हो। जिस समाजमें कर्मयोग । मिन्न भिन्न व्यक्ति समाजके कल्याणके सभी तत्वज्ञानी इस प्रकार डरपोक विषयमें, सबका सम्बन्ध न रहनेके कारण और संसारमे डरकर भाग जानेवाले विचार नहीं करने, उस समाजमें समष्टि- नहीं थे। कुछ ऐसे ढीट, जोरदार और रूपमे मजीवताका अहंभाव उत्पन्न नहीं बुद्धिमान लोगोंका उत्पन्न होना पायौँके होता । प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने निजके इतिहासमें आश्चर्यकारक नहीं कि, जिन्होंने सुख-दुःखके ही विचारसे ग्रस जाती है। साधारण लोकमत-प्रवाहके विरुद्ध यह सम्पूर्ण समष्टि-रूपके समाजके सुख-दुःख प्रतिपादन किया कि, संसारमें रहकर उसके मनके सामने खड़े नहीं होते। धर्म तथा नीतिका आचरण करना ही अथवा उनकी चिन्ता वह नहीं करता। मोक्षका कारण है। ऐसे थोड़े तत्वज्ञानियों- राज्यरूपी समाज चूँकि दीर्घायु होता में एक श्रीकृष्ण अग्रणी थे। उन्होंने अपना है, अतएव राज्य-विषयक कल्पनामोसे यह स्वतन्त्र मत भगवद्गीतामें प्रति- प्रत्येक मनुष्यके मनमें जागृति होती है, पादित किया है। श्रीकृष्णके मतका उसके क्षणिक सुख-दुःखका उसे विस्मरण विस्तारपूर्वक विचार हम अन्य अव- हो जाता है और उसके मनमें यह भावना सर पर करेंगे । परन्तु यहाँ उनके उत्पन्न नहीं होती कि संसार केवल : उपदेशका सारांश थोड़े में बतलाना भाव- दुखमय है। इस बातका हमने पहले ही श्यक है। वह यह है कि, मोक्षप्राप्तिके विचार किया है कि, भारतवर्ष के राज्य लिए निस्कियत्व अथवा संन्यास जितना धीरे धीरे भारत-कालमें एकतन्त्री राज- निश्चित और विश्वासपूर्ण मार्ग है, उतना सत्तात्मक हो गये थे। अर्थात् क्षत्रियोंके ही स्वधर्मसे, न्यायसे, निष्काम बुद्धिसे, अतिरिक्त अन्य धोका, अर्थात् प्रामणों, । अर्थात् फलत्याग बुद्धिसे, कर्म करना भी