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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५४

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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा

हैं। उदाहरणार्थ, सनत्सुजात श्राख्यान काव्य-चमत्कृति मूलमें व्यासजीकी ही हो देखने योग्य है। कहीं कहीं तो पाठकोंको और उसे सौतिने अपने चातुर्यसे बहुत चकर में डाल देनेवाला एकाध विलक्षण अधिक बढ़ा दिया हो। इससे यही नाम ही मिल जाता है, जैसे श्राश्रमवासिक' कहना पड़ता है कि सौति कोई छोटे प्रर्वमें “इयं स्वसा राजचम्पतेश्च" वाला दर्जेका कवि न था। श्लोक है। कई स्थानों में ज्योतिष-सम्बन्धी ....... ... और पोंके विषयमें जो उल्लेख है, उनमें । () विरमेच्छुकवरेभ्यः कंठायासं च वर्जयेत् ।। कुछ न कुछ कट अवश्य रहता है । उसको (शान्ति० १८३-१०) समझ लेनेका प्रयत्न करना कभी कभी कण्ठायासं मुखरत्वं व्यर्थ हो जाता है। हमारा यह अन्दाज़ है (6) ग्वार्थमत्यन्तसन्तुष्टः करः काल इवान्तकः ॥ कि महाभारतमें कूट अथवा गूढार्थ श्लोकों- (शान्ति० ११६-११) की संख्या बहुत है । प्रायः प्रत्येक अध्याय- (१०) कुलजः प्राकृतो राशा स्वकुलीनतया सदा ॥ में इस प्रकारके स्थान पाये जाते हैं और (शान्ति०११८-४) कहीं कहीं तो ऐसे स्थानोंकी संख्या बहत (११) अकुलीनस्तु पुरुषः प्राकृतः साधुसंश्रयात ॥ ही अधिक है। महाभारतमें कुल अध्यायों- (शान्ति० ११८-१) (१२) नेण्यं जिमनमादाल्भ्यं सत्यमार्जवमेव च ॥ की संख्या लगभग २००० है: ऐसी अवस्था- (शान्तिः १२०-५) में कृट श्लोकोंकी संख्या कई हज़ार हो श्रादालभ्य अभयं सकती है* । अस्तु : सम्भव है कि यह (१३) श्लक्ष्णाक्षरतनुः श्रीमान्भवेच्छाविशारदः ।। (शान्ति० १२०-७) • कूट लोको और कृट शब्दोय कर और भी (११) लोक चायन्यगौ दृष्टवा ब्रहदवृक्षमिवासनः ।। उदाहरण दिये जा सकते है, अमे:- (शान्ति० १२०-६) (१) यत्र मा बदा मण्या हृदो वैहायसत्तथा ॥ (१५) शान्ति पर्वका ममता वा अन्याय भोकोंमे (शान्ति०१२१.३) " गराहा है। वैहायमः (मानाकिन्या )दः। (१६) काव्यानि वदता नेपा मयच्छामि बदामि च । (२)न शालिस्वितां वृत्ति शायमाभ्याय जीवितुम ॥ . (शान्ति० १२४-३४) (शान्ति. १३०-२६) | काव्यानि शुक्रप्रोक्तानि नातिशास्त्राणि । शडेललायरियन । (७) म तस्य सहजातस्य सप्तमी नवमी दशाम । (३) नासतो विद्यते राजन्नधार गयेषु गोपतिः॥ प्राप्नवन्ति नतः पर न भवन्ति गतायुपः ॥ (शान्ति० १३५-२६) (शान्ति० ३३१-२८) (४) मासाः पक्षाः पट मृतवः कल्पः सम्वत्सरारतथा (१८) त्यज धर्ममधर्म च उभे सत्यानृते त्यज । (शान्ति० १३७-२१) उभे मत्यानृते न्यनवा येन त्यजमिनं त्यज || (शान्ति० ३२६-४०). (५) पृष्ठतः शकटानीकं कलत्रं मध्यरतथा ॥ । (१६) विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः ।। (शान्सि० १८०~-४३) । (शान्ति० १११-३२) (६) स्कंध दर्शन मात्रात्त तिष्ठेयुर्वा समीपतः ॥ सुखं स्वर्ग: शान्ता १००-४३) (२०)मनुष्यशालावकमप्रशान्तं जनापवादे सततं (७) पारावन कुर्लिगाताः सर्वे शराः प्रमायिनः ॥ निविष्टम् ।। (शान्ति० ११४-१७) (शान्ति० ०१-७) मनुष्य शाला वृकं मनुष्येषु श्वा । 'कलिंगो भूमिकश्मांटे मतंगजभुजंगयोः । (२१) भवानं मोऽति चकाम खचरः खेचरनिव॥ कुलिंगः सः (शान्ति० ३२५-१६)