पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५३

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  1. महाभारतके कर्ता *

२७ यह अनेक अप्रयोजक दृश्यों तथा कल्प- युसेड़ दिया है। यद्यपि कूट श्लोकोकी नामोंसे भरा है। इतना होनेपर भी,८०० संख्या गर्वोक्ति और अतिशयोक्तिसे कवित्वकी दृष्टिसे, वह कुछ छोटे दर्जेका भरी देख पड़ती है, तथापि महाभारत में नहीं है। सौतिकी कवित्व-शक्ति यद्यपि ऐसे श्लोकोंकी कुछ कमी नहीं है । इसका व्यासजीकी शक्तिके समान न हो, तो भी कुछ अन्दाज़ नीचेके विवेचनसे किया जा वह बहुत ऊँचे दर्जेकी है। यह बात सकता है। विराट पर्वमें पाये जानेवाले अनेक मनो- महाभारतमें कहीं कहीं एकाध शब्दका हर वर्णनोंसे सिद्ध है। परन्तु स्त्री-पर्वके प्रयोग ऐसा हुआ है कि उसका अर्थ बहुत समान ही,मनुष्य-स्वभावकी दृष्टि से वहाँके गूढ़ है, अथवा उसका अर्थ सरल रीतिसे दृश्य भी असम्भव प्रतीत होते हैं। उदा- समझमें नहीं आता और मनमें कुछ दूसग हरणार्थ, उत्तर एक डरपोक वालक था: ही भ्रामक अर्थ उत्पन्न कर देता है । इससे जब वह भागा चला जाता था, तब अर्जुनने यथार्थ ज्ञानमें रुकावट होती है। शान्ति उसके केश पकड़कर उसे पीछे लौटायाः पर्वका अवलोकन करते समय थोड़े ही परन्तु श्राश्चर्यकी बात है कि वही बालक अध्यायोंमें ऐसे श्लोक हमें देख पड़े। वे आगे चलकर एक बड़ा भारी कवि बन नीचे दिये जाते हैं। श्राशा है कि ध्यानपूर्वक जाता है और पाँच पांडवोंके पाँच पढ़नेवालोको इनसे कुछ लाभ होगा। धनुष्योंका वर्णन अत्यन्त चित्ताकर्षक १-चतर्थोपनिषद्धर्मः साधारण इति रीतिसे करता है! और जब इस बातपर। स बातपर स्मृतिः । मॅसिडैः साध्यते नित्यं ब्राह्मणे- . ....... ........ ध्यान दिया जाय कि इस वर्णनमें कुछ कूट नियतात्मभिः ॥ (शान्ति० अ० १७०, ३०) श्लोक भी हैं, तो स्पष्ट कहना पड़ेगा कि यह सब रचना सौतिकी ही है। यहाँ यह प्रश्न . २-श्वेतानां यतिनां चाह एकान्त- विचार करने योग्य है कि कट श्लोकोकी गतिमव्ययाम् ॥ (शान्ति० अ० ३४६) रचना सचमुच किसने की होगी। जव हम ३-सेवाश्रितेन मनसा वृत्तिहीनस्य इस बातपर ध्यान देते हैं कि केवल शस्यते। द्विजातिहस्ताग्निर्वृत्ता न तुतुल्या- शब्दालंकागेसे अपने काव्यको विभूषित परस्पगन ॥ (शान्ति० अ० २६१) करनेकी प्रवृत्ति प्रायः अत्युत्तम कविमें , ४-यः सहस्राण्यनेकानि पुंसामा- नहीं होती, तब कहना पड़ता है कि ये कृट वृत्य दुर्दशः । तिप्रत्येकः समुद्रान्ते स मे श्लोक सौतिके ही होंगे। व्यासजीके मूल-गोलास्त नित्यशः॥ (शान्ति० अ० २८४) भारतमें कहीं कहीं शब्द-चमत्कृतिका पाया जाना कुछ असम्भव नहीं है; परन्तु इसका ५-गृहस्थानां तु सर्वेषां विनाशमभि- परिमाण कुछ अधिक न होगा। कर्णपर्व कांक्षिताम् । निधनं शोभनं तात पलिनेष १० वें अध्यायके अन्तमें शार्दूलविक्रीडित क्रियावताम् ॥ (शान्ति० अ० २६७) वृत्तका एक श्लोक है। उसमें 'गो' शब्दका ६-माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या मित्रं भिन्न भिन्न अर्थों में बार बार उपयोग करके जनस्तथा । अष्टापदपदस्थाने दचमुद्रेव उसे कृट श्लोक बना दिया है। यह तो लक्ष्यते ॥ (शान्ति० अ० २७८) सौतिका भी न होगा । जान पड़ता है कि इस प्रकार और भिन्न भिन्न स्थानों के शब्द-चित्र-काव्यकीरचना करनेवाले किसी अनेक श्लोक बतलाये जा सकते हैं । इनके दुसरे कविने इस श्लोकको पीछेसे यहाँ मिवा, कई श्राग्यानों में पूरे श्लोक ही कट