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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा

माचरण योगके आचरणसे भी कठिन होता ही है: और अधर्मका फल भी है। इस विषयमें महाभारतकारने वन- आगे चलकर अवश्य ही मिलता है। पर्वमें युधिष्ठिर और द्रौपदीका सम्बाद इसी लिए, धर्म और नीतिका चाहे कुछ बहुत ही सुन्दर दिया है। द्रौपदी कहती दिन अपक्रम होता रहे, और नीतिका है-"तुम 'धर्म ही धर्म · लिए बैठे हो आचरण करनेवाले पर दुःख आते रहें, और यहाँ जङ्गलमें कष्ट भोग रहे हो: उधर तथापि धर्म-विषयक अपनी श्रद्धा कभी अधर्मी कौरव आनन्दपूर्वक हस्तिनापुरमें कम न होने देनी चाहिए। धर्माचरणमें राज्य कर रहे हैं। तुम शक्तिमान् हो, ' यही करना कठिन है। मनुष्यकी चञ्चल अतएव अपनी बनवासकी प्रतिज्ञा छोड़- वुद्धि बार बार मोहमें पड़ जाती है और कर बलसे अपना राज्य प्राप्त करनेका वह नीतिपथले च्युत हो जाता है। उसको यदि प्रयत्न करोगे, तो तुम्हें वह सहज मालूम होता है कि, बिना किसी कष्टके ही मिल जायगा। जिस धर्मसे दुःख थोडीसी चालाकीसे, बहुतला लाभ उत्पन्न होता है, उसे धर्म ही कैसे कहें ?" होना है। इसी प्रकारके दृश्य बारबार "दुर्योधनके समान दुष्टको ऐश्वर्य देना। उसके सामने आकर उसको प्रलोभित और तुम्हारे समान धर्मनिष्ठको विपत्तिमें किया करते हैं और इसी कारण उसका डालना, इस दुष्कर्मसे सचमुच ही पर., मन अनीतिके वश हो जाता है । ऐसी मेश्वर निर्दय जान पडता है।" इस पर दशामें अत्यन्त भारी सइटों और भयहर युधिष्ठिरने जो उत्तर दिया है, वह सुवर्णा- अवसरोंके समय यदि मैंकड़ों मनुष्योंके क्षरोंमें लिख रखने योग्य है। मन धर्मकी कसौटी पर ठीक न उतरं, तो धर्म चरामि सुश्रोणि इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इस कारण न धर्मफलकारणात् । संसारमै सञ्चं धार्मिक मनुष्य बहुत थोड़े धर्मवाणिज्यको हीनी दिखाई देते हैं । जो मनोनिग्रह संन्यासी जघन्यो धर्मवादिनाम् ॥ अथवा योगीके लिए आवश्यक है, वही "हे सुन्दरि, में जो धर्मका आचरण और उतना ही मनोनिग्रह संसारके ऐसे करता हूँ, सो धर्मफल पर अर्थात् उससे ' अवसरोके प्रलोभनोसे बचनेके लिए भी होनेवाले सुखकी प्राप्ति पर ध्यान देकर : श्रावश्यक है। इस प्रकारके मनोनिग्रहसे नहीं करता; किन्तु इस दृढ़ निश्चयके जब धार्मिक मनुष्यका चित्त बलवान् हो साथ करता हूँ कि धर्म, चूँकि धर्म है, इस जाता है, तब उसका आत्मा सचमुच ही लिए वह सेवन करने योग्य है । जो ऊर्ध्वगतिको जानेके योग्य बन जाता है; मनुष्य धर्मको एक व्यापार समझता है, और अजरामर परब्रह्ममें तादात्म्य पाने यह हीन है। धर्म माननेवाले लोगों में वह योग्य हो जाता है। इस विचारशैलीसे बिलकुल नीचे दर्जेका है।" मनुष्यकी जो देखते हुए यही कहना पड़ता है कि, भूल होती है, सो यही है । कुछ देरतक महाभारतमें जो यह सिद्धान्त प्रतिपादित हमको ऐसा दिखाई देता है कि, अधार्मिक किया गया है कि, संन्यास अथवा योगके मनुष्यको लाभ हो रहा है, अथवा वह मार्गकी भाँति ही संसारमें नीतिका आख- उत्तम दशामें है; परन्तु नीतिके आचरण करनेवाला मनुष्य मोक्षको जा पहुँ- रसका उत्तम फल तत्काल चाहे नचता है, सो बिलकुल ठीक है। दिखाई देता हो, परन्तु कभी न कभी वह किसी किसी विशिष्ट अवसर पर