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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५४८

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महाभारतमीमांसा

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परन्तु वहाँ कहे हुए "प्राधिष्ठानां तथा कालमें अनेक सूत्र थे वे इस समय नष्ट हो करतो" आदि श्लोकोंमें वर्णित सिद्धान्त गये है, उनमें एक आध ब्रह्मसूत्र होगा और वर्तमान सांख्यशास्त्र में नहीं हैं। इससे उसमें भगवद्गीतामें वर्णित किया हुभा भी यही निश्चय होता है कि भगवडीताके विषय होगा। इस श्लोकमें क्षेत्रका जो समयमें सांख्यशास्त्रका कोई भिन्न ग्रन्थ | वर्णन है वह न तो केवल सांख्योंका ही होगा। गीता के 'प्रोच्यतेगुण संख्याने' है और न केवल वेदान्तियोका ही।

महाभूतान्यहंकारो

श्लोकमें यह बात स्पष्टतयाव्यक्त की गई है। बुद्धिरव्यक्तमेव च। कि त्रिगुणोंके सम्बन्धमें सांख्यशास्त्रका इन्द्रियाणि दशैकं च माटा आर नयासिद्धास्त प्रारम्भस हाहा पञ्चचन्द्रियगोचराः॥ हम यह कह चुके हैं कि सांख्योंका। इसमें सन्देह नहीं कि उक्त श्लोकमें चौबीस तत्वोंका सिद्धान्त पहलेसे ही तत्वोंका जोड चौबीस है। परन्तु इतना नहीं है: मूलतः उनके सत्रह तत्व थे। ही पर्याप्त नहीं, कयोंकि इनमें "इच्छा- पहले यह माना गया होगा कि प्रकृतिसे । पहले बुद्धि निकली । ऐसा अनुमान , द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतनाधृतिः" किया जा सकता है कि सांख्य-सिद्धान्तों यह सात तत्व और शामिल हैं, जिसमे में बुद्धिके स्थान में महत्तत्व पीछेसे कायम : कुल जोड़ ३१ होता है । इसके अतिरिक्त किया गया होगा। भगवद्गीताके तेरहवें यदि मून्म दृष्टिसे देखा जाय तो इनमें अध्यायमें जो वर्णन है वह अत्यन्त महत्व- मुन्म महाभूत सर्वथा बताये ही नहीं का है। इस अध्यायमें सांख्य और वेदान्त गये हैं। महत्के लिए बुद्धि और प्रकृतिके मतका एक जगह मेल मिलाकर अथवा लिए अव्यक्त शब्दका प्रयोग किया गया भिन्न भिन्न मतोका मेल मिलाकर क्षेत्र, है। इसमें इन्द्रियगोचर अर्थात् शब्द, और क्षेत्रन, प्रकृति और पुरुष तथा ज्ञान । म.प, स्पर्श, ग्स और गन्ध विषयका और शेयका विचार किया गया है। वर्णन किया गया है। अर्थात् यह स्पष्ट ___ हम पहले बता चुके हैं कि "ब्रह्म- _ है कि सांख्योंके २४ तत्वोंकी ही यहाँ म. परिगणना नहीं है। कणादने इच्छा, द्वेष, मूत्र पदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः" । मुख, दुःख, संघात, चेतना और धृतिको इस वाक्यमें बादरायणके ब्रह्मसूत्रका प्रात्माके धर्म माने हैं। वे यहाँ क्षेत्रके उल्लेख नहीं है। यहाँ हम इसका एक : धर्म बतलाये गये हैं। यह बात श्रीमच्छ- और भी प्रमाण देते हैं। ब्रह्मसूत्र अर्थात् : इराचार्यने इस श्लोककी टीकामें कही बादरायणके ब्रह्मसूत्रमें क्षेत्र-क्षेत्रशोका है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कह विचार बिलकुल नहीं किया गया है। सकते कि कणादका मत भगवद्गीताके यहाँ उसका उल्लेख केवल गर्भित पाया पहले प्रचलित था । महाभारतमें तो जाता है। इतना ही नहीं, परन्तु इसी : कणादका उल्लेख ही नहीं है। हाँ, हरि- लोकमें आगे जो क्षेत्रका वर्णन किया वंशमें है। इससे सिद्ध है कि वह भग- गया है, वह बादरायण सूत्रमें नहीं है। वद्गीताके पूर्व न होगा। हमारा मत है यह एक महत्वका प्रश्न है कि, यह वर्णन कि भगवद्गीताने यह मत किसी पहलेके कहाँसे लिया गया है ? जैसा कि पाणिनि- ऐसे ब्रह्मसूत्र से लिया है, जो अब मष्ट से भी विदित होता है, कदाचिन् प्राचीन हो गया है। हमने यही कहा होता कि