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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५५५

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  • भिन्न मतोका इतिहास। *

५२७ सप्त या धारणाः कृत्वा वाग्यताःप्रतिपद्यते। यह बताया गया है कि अन्तमें नील बिन्दु पृष्ठतः पार्वतश्चान्यास्तावत्यस्ताःप्रधारणाः॥ दिखाई देता है। इसका उल्लेख पातजल- • इस प्रकार टीकाकारने इसमेंकी सात सूत्रमे नहीं मिलता। किन्तु यह मही धारला और प्रधारणा अलग अलग बताई कहा जा सकता कि यह केवल कल्पना है। है, परन्तु मूलमें वह नहीं हैं। प्रधारणा. जब योगीको सिद्धिकी प्राप्ति होती शब्द पतञ्जलिमें नहीं है । यहाँ भ्रमध्य, है तब उसमें सामर्थ्य आता है। "पृथ्वी- नासान, कण्ठकृपादि धारणा अभिप्रेत का ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व मिलने पर वह होगी, साथ ही पृष्ठतः तथा पार्श्वतः भी सृष्टि बना सकता है। वायुका सामर्थ्य बताई गई हैं। आने पर वह केवल उँगलीसे पृथ्वीको क्रमशः पार्थिवं यश्च वायव्यं खं तथा पयः। हिला सकता है। आकाशरूपी बननेसे ज्योतिषो यत्तदैश्वर्यमहंकारस्य वुद्धितः । वह अन्तर्धान पा सकता है। जलको जीत अव्यक्तस्य तथैश्वयं क्रमशः प्रतिपद्यते ॥ लेने पर अगस्त्यके समान कृप, तालाब पृथ्वी, जल, तेज, वायु, श्राकार,अहं- और समुद्रको पी जा सकता है। बह- कार तथा अव्यक्त ये सात अन्तर्धारणाएँ कारको जीत लेने पर पंचमहाभूत उसके हैं। इनमें धारणा स्थिर करनेसे योगीको अधीन होते हैं और बुद्धिका जय होने इनका सामर्थ्य प्राप्त होता है। "विक्रमा पर संशयरहित ज्ञान प्राप्त होता है।" मापियस्यैते" इसमेका विक्रम शब्द बढ़कर हैं। अनुशासन पर्वके चौदहवें .। ये सिद्धियाँ अणिमादि सिद्धियोंसे भी पतञ्जलिमें नहीं है । “निर्मुच्यमानः अध्यायमें अणिमा, महिमा, प्राप्ति, सत्ता, सूचमत्वाद्रपाणीमानि पश्यति" तेज, अविनाशिता ये छः योगकी सिद्धियाँ कहकर श्वेताश्वतरमें कहे हुए नीद्वार वर्णित है। महाभारतमें योग-सामर्यका या तपः सामर्थ्यका जो वर्णन है वह कदा- धूमार्कनलानिलानाम्" इत्यादि रूपों " चित् अत्युक्ति होगी: या वह वर्णन अधि. वर्मान दिया गया है। जैसे शिशिराधिकरता गया होगा: तथापि इसमें ऋतुकी प्रोसकी धारणा करनेसे श्रोस,' सन्देह नहीं कि योगीमें कुछ विशेष उससे आगे जलकी धारणा करनेसे सामर्थ्य के पानेकी कल्पना प्रारम्भसे हो. जल, अग्निकी धारणा करनेसे अग्नि, है और इसीसे बौद्ध, जैन आदि मतोंने पीत शस्त्रकी धारणा करनेसे पीत शस्त्र, भी योगका अवलम्ब किया है। और प्राकाशकी धारणा करनेसे अशुक्ल महाभारतके अनुसार योग और अथवा नीलवर्ण छिद्ररूपी आकाश दिखाई। सांख्य एक ही है इसी लिए उसमें कहा देने लगता है। इससे यह विदित होता है कि योगमें सांख्यके ही पञ्चीस तत्व हैं। है कि योग-कल्पनाके भिन्न भिन्न अङ्ग पञ्चविंशतितत्वानि तुल्यान्युभवतः समम् । किस तरह बढ़ते गये । भीष्मस्तवके । (शां० २३६-२९) "ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानाः" के अनु परन्तु पातअलि-सूत्रमें इसका उल्लेख सार यह समझा जाता था कि धारणामें नहीं है। यह सिद्धान्त होनेका कारण ऐसा योगियोंको ज्योति दिखाई देती है। उस जान पड़ता है, और पहले हमने इसका ज्योतिमें दिखाई देनेवाले पदार्थोंका उल्लेख भी कर दिया है,कि सब तत्व-शानों- अधिक सूक्ष्म वर्णन किया गया है और का समन्वय करनेका प्रयत्न महाभारत में