पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५५६

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महाभारतमीमांसा

५२८ 8 महाभारतमीमांसा किया गया है। यह ध्यानमें रखना चाहिए प्रतिपादकने भगवद्गीताके समान व्यापक कि परमात्माको अलग माननेसे योगके दृष्टिसे अपना नवीन मार्ग खियोवैश्या: छब्बीस तत्व होते हैं । योगका निरूपण स्तथा शूद्रास्तेपि यांति परां गतिं । वैश्य, २४० वें अध्यायमें आया है । इसमें शद्र, स्त्रियों आदि सबके लिए खोल दिया प्रथम काम, क्रोध, लोभ, भय और है। इसी प्रकार कहा है कि योग-मार्ग निद्रा ये योगके दोष बताये हैं और उन भी सबको मोक्ष देनेवाला है।। पर विजय प्राप्त या है। अपि वर्णावकृष्टस्तु नारी पा धर्मका- (पतअलिने पाँच क्लेश बताये हैं और क्षिणी । तावप्यनेन मार्गेण गच्छेताम् उन्हें हेय कहा है । ये दोष अविद्या, परमां गतिम् ॥ (शां० अ० २४०, ३४.) प्रमिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश हैं ।) "षण्मासान्नित्ययुक्तस्य शब्द निद्रा दोष योगके प्रारम्भसे माना गया होगा । भीष्मस्तवमें योगियोंका लक्षण ब्रमाति । ब्रह्मातिवर्तते" विनिद्रः बताया गया है। हृदय और इस वाक्यमें शब्द-ब्रह्मका अर्थ टीका- वाणीका निरोध करनेके लिए उसमें कारने प्रणव किया है। पतञ्जलिसे भी यज्ञादि क्रियाओंका भी अनुष्ठान बताया जान पड़ता है कि इस योग-मार्गमें प्रणवके गया है। उसमें कहा है-"दिव्य गन्धादि जपका महत्त्व है । यद्यपि जप और योग- वस्तुओंकी अथवा दिव्य स्त्रियोंकी प्राप्ति, मार्गका नित्य सम्बन्ध न हो, तौभी योग- और आकाशमें लुप्त हो वायुके वेगसे के ध्यानमें प्रणवका जप एक अङ्ग है। जानेकी या सब शास्त्रोके आपसे श्राप महाभारतके शान्तिपर्व (२०० में अध्याय) शान होनेकी सिद्धियाँ योगी के मार्ग में कहा है कि योगी और जप करनेवाले बाधा डालती हैं। उनकी परवा न करके एक ही गतिको पहुँचने हैं। बुद्धिमें उनका लय करना चाहिए : यह तज्योतिः म्तृयमानं स्म ब्रह्माणे बात बुद्धि-कल्पित है। नियमशील योगी प्राविशत् तदा। प्रातःकालमें, पूर्व रात्रिमें और उत्तर गत्रि- ततः स्वागमित्याह तत्तेजः प्रपितामहः । में, तीन बार योगाभ्यास करे। गाली अङ्गुष्टमात्रपुरुषं प्रत्युद्गम्य विशांपते ॥ देनेवाले और अभिनन्दन करनेवाले दोनों ब्रह्मदेवके मुख में यह ज्योति प्रविष्ट पर वह समदृष्टि रखे और द्रव्योपार्ज- हुई । यही गति जापकोंकी तथा योगियो। नादि मार्गसे वह दूर रहे।" इसमें कहा की है । टीकाकारका तर्क है कि ये है कि योगीको छः महीने में योग-सिद्धि पाठ्यबालमें ब्रह्माके साथ मुक्त होंगे। यह होती थी। ये सब बातें पहलेकी अपेक्षा सीढ़ी वेदान्तकी दृष्टि से बनाई गई होगी। भी अधिक है। ऐसा ही तर्क और एक श्लोकके आधार इस अध्यायमें कहा है कि हीनवर्णके पर टीकाकारने किया है । वह यहाँ देने पुरुषोंको याधर्मकी अभिलाषा करनेवाली योग्य है :- लियोको भी इस मार्गसे सद्गति मिलतो इदं महर्षेर्वचनं महात्मनो यथावदुक्तं है। मालूम होता है कि ये लेख भगवद्गोता- मनसानुगृह्य । अवेक्ष्य चेमां परमेष्ठि- से या उपनिषदसे लिये गये हैं। कर्म- साम्यतां प्रयाति चाभूतगति मनीषिणः । मार्ग केवल प्रायौँ तथा पुरुषों के लिए (शां० अ०२४०) खुखा था। अतएव नवीन मतके प्रत्येक इस श्लोकके 'अभूत-गतिः परसे