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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५६१

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ॐ भिक मतका इतिहास। * रखकालके सम्बन्ध भी "अग्निज्यों- वनीतामें उसकी जो व्याख्या की गई सिरहः शुक्ला षण्मासा उत्तराय- है और जो "एतत्ज्ञानमितिमोक्त' पम्" आदि उपनिषदोंका मत यहाँ बत- कहकर पूरी की गई है वह बहुत ही सुन्दर लाया गया है। उत्तरायणमें देहको छोड़ने- है। उससे भगवद्गीताकी विशिष्ट कार्य- वाला प्राणिमात्र ऐसी परमगतिको । क्षमता प्रकट होता है। यहाँ उपनिषद्का जायगा जहाँसे पुनरावर्तन नहीं है। यह भावार्थ भगवद्गीताने इतनी सुन्दर रीति- मत गीताने स्वीकृत किया है। परन्तु उस से प्रथित किया है कि हर एक मुमुक्षुको पर अपनी मुहर-छाप लगा दी है। गीता-चाहिए कि वह इसका अध्ययन करे। में कहा है कि योगी यदि देवयान तथा इसमें भी भगवानने "मयि चानन्य पितृवानके भिन्न भिन्न मार्गीको जानता योगेन भक्तिरव्यभिचारिणी" भग- हो.तो मोहमें नहीं फँसता। अथात् यह : वद्भक्तिका बीज बो दिया है। इसके आगे अर्थ सम्भव है कि योगी उस गतिकी जो शेयका वर्णन है वह उपनिषद्म दिये परवा नहीं करता । अथवा यह अर्थ भी हुए ब्रह्मके वर्णनके समान ही है। जगह सम्भव है कि इस ज्ञानके बल पर योगी जगह पर ( सर्वतः पाणिपादं तत् दक्षिणायनमें देह छोड़नके मोहमें नहीं । फँसता । इस अध्यायमें उपनिषद्के मत- आदि स्थानों में ) उपनिषद्के वाक्योंका के अनुसार ही वेदान्तकी रचना कर स्मरण होगा। इसमें 'निर्गुणं गुण मोक्तु गीताने उस सिद्धान्तको थोडा बढाकर च' अधिक रखा गया है। हम पहले ही भगवद्भक्तिमें मिला लिया है। दिखा चुके हैं कि उपनिषदोंमें गुणोंकी क्षेत्रक्षेत्रज्ञ-ज्ञान भी उपनिषदका एक ; बिलकुल कल्पना नहीं है। सांख्यमतकी प्रतिपाद्य विषय है। परन्तु उपनिषद में - मुख्य बातोमेसे त्रिगुण भी एक है। भग- उसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। यह विषय वानने उसे यहाँ मान्य कर वेदान्तकेशान- भगवद्गीताके १३ वें अध्यायमें है और वहाँ में उसे शामिल किया है । वेदान्तमें स्पष्ट बतलाया गया है कि यह विषय निर्गुण परिभाषा भगवद्गीतासे शुरू हुई। उपनिषदों और वेदोंका है । ऐसा जान ! यह तत्व, कि ब्रह्म शेय तथा निर्गुण है और पड़ता है कि भगवद्गीताने अपनी क्षेत्रकी वह जगत्सृष्टिके गुणोंका भी भोक्तृ है, व्याख्यामें उपनिषद्के आगे कदम रखा है। उदात्त है और उपनिषत्तत्वों में उसका बल्कि यह मानने में कोई हानि नहीं कि योग्य समावेश हुआ है। इसलिए इस उस ज्ञानकी परिपूर्णता की है। इच्छा- अध्यायमें शेयकी व्याख्या करते समय देषः सुखं दुखं संघातः चेतना भगवानने सांख्यज्ञानके ग्राह्य भागकी ओर धृतिः इतने विषय उसने क्षेत्रमें और दृष्टि दृष्टि की है। गीतामें जो प्रकृति पुरुषकी बढ़ा दिये हैं। इसी प्रकार झान यानी व्याख्या दी है सो स्वतन्त्र रूपसे गीताकी शानका साधन जो यहाँ बताया गया है, सांख्यकी नहीं। यद्यपि ऐसा है तौमी वह उपनिषदूमें किसी एक स्थानमें नहीं पुरुषके हृदयमे निवास करनेवाला आत्मा है। "प्रमानित्वमदंभित्वं" आदि और परमेश्वर या परमात्मा एक है और १. उसके सम्बन्धमें सांख्यमत भूलसे भरा लोकसे "अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं और अमाप है, यह दिखलानेके लिए तत्वज्ञानार्थदर्शनम्" लोकतक भग- कहा है कि:-