५४४ .. महाभारतमीमांसा * A ओंकारयुक्त सावित्रिका जप करता था। कार्यकी उत्पत्ति है तथा इससे चराचर उस जितेन्द्रिय हरिके अन्य मुखोमेसे जगत्का निर्माण होता है, इसीको अनि- चारों घेद, वेदाङ्ग और आरण्यकोंका घोष रुद्ध कहते हैं। इसीको ईशान भी कहते हैं। हो रहा था। उस यज्ञरूपी देवके हाथमे सर्व कर्मों में व्यक्त होनेवाला अहंकार यही वेदि, कमण्डलु, शुभ्रमणि, उपानह, कुश, है। निर्गुणात्मक क्षेत्र भगवान् वासुदेव अजिन, दण्डकाष्ठ और ज्वलित अग्नि जीवरूपमें जो अवतार लेता है, वह संक- थे।" इस वर्णनसे यह स्पष्ट दिखाई देता र्षण है; संकर्षणसे जो मन रूपमें अवतार है कि पांचरात्र-मत वेदों और यशोंको होता है वह प्रद्यम्न है और प्रद्युम्नसे जो पूरा पूरामानता था। अस्तु । भगवद्गीताका उत्पन्न होता है वह अनिरुद्ध है और वही विश्वरूप और यह विश्वरूप दोनों भिन्न अहंकार और ईश्वर है।" - हैं। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि प्रसङ्ग पांचरात्र-मतका यही सबसे विशिष्ट भी भिन्न हैं । तथापि निष्कर्ष यह निक- सिद्धान्त है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न लता है कि यह आख्यान भगवद्गीताके और अनिरुद्धका श्रीकृष्णके चरित्रसे प्रति बादका है । यहाँ पर नारायणने नारदको घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिए श्रीकृष्णके जो तत्वज्ञानका उपदेश दिया है उसमें भक्तोंमें उनके लिए पूज्य-भक्तिका होना पांचरात्रके विशिष्ट मत आये हैं। वे ये स्वाभाविक है । इसी कारणसे पांचरात्र हैं-"जो नित्य, अजन्मा और शाश्वत , मतमें उन नामोंका समावेश हुआ होगा। है, जिसे त्रिगुणोंका स्पर्श नहीं, जो जय श्रीकृष्णका वासुदेव नाम परमेश्वर- आत्मा प्राणिमात्रमें सातिरूपसे रहता के स्वरूपसे पूजनीय हुआ, तब आश्चर्य है, जो चौबीस तत्वोंके परे पच्चीसवाँ नहीं कि प्रद्युम्न और अनिरुद्धके नाम पर- पुरुष है, जो निष्क्रिय होकर झानसे मेश्वरसे उत्पन्न होनेवाले मन और अहं- ही जाना जा सकता है, उस सनातन कारके तत्वों में सहज ही एकत्र हो गये। परमेश्वरको वासुदेव कहते हैं । यही कांकि श्रीकृष्णका पुत्र प्रद्युम्न है और सर्वव्यापक है । प्रलय कालमें पृथ्वी ' उसका पुत्र अनिरुद्ध है। परन्तु संकर्षण जलमें लीन होती है, जल अग्निमें, तेज नाम वलरामका यानी श्रीकृष्णके बड़े वायुमें, वायु आकाशमें, और आकाश भाईका है । बलरामके लिए मान लिया अव्यक्त प्रकृति में और अव्यक्त प्रकृति कि, पूज्य भाव था: तथापि उसका नाम पुरुषमें लीन होती है। फिर उस वासु. जीवको कैसे दिया गया ? उसका देवके सिवा कुछ भी नहीं रहता। पञ्च- और श्रीकृष्णका सम्बन्ध बड़े और महाभूतोंका शरीर बनता है और उसमें छोटे भाईका था: वैसा सम्बन्ध जीव अरश्य वासुदेव सूक्ष्म रूपसे तुरन्त प्रवेश और परमेश्वरका नहीं है। अस्तु । इस करता है। यह देहवर्ति जीव महा-समर्थ सम्बन्धके विचारसे ये नाम नहीं रखे है और शेष और संकर्षण उसके नाम हैं। गये । श्रीकृष्णके सम्बन्धसे ये नाम प्रिय इस संकर्षणसे जो मन उत्पन्न होकर हुए थे, इसीसे इमका उपयोग किया गया "सनत्कुमारत्व" यानी जीवन-मुक्तता पा ऐसा नहीं दिखाई देता कि श्रीकृष्णके पूर्ष सकता है और प्रलय कालमें जिसमें सब वासुदेव नाम परमेश्वरवाची था। भग- भूतोका लय होता है उस मनको प्रद्युम्न वद्गीतामें भी यह नाम श्रीकृष्ण के सम्बन्ध कहते हैं । इस मनसे कर्ता, कारण और में परमेश्वरके अर्थमें पाया है।
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