पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५७३

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- ® भिन्न मतोका इतिहास। . ५४५ बहना जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। यह मान लेनेमें कोई हर्ज नहीं कि वासुदेवः सर्वमिति स महात्मासुदुर्लभः॥ यह मत पहले सात्वत लोगोंमें उत्पन ___यह श्लोक गीतामें आया है और हुआ।सात्वत लोग श्रीकृष्णके वंशके लोग श्रीकृष्णने अपनेको लक्ष्य कर कहा है। है । इसीसे इस मतको सात्वत कहते हैं। माना कि श्रीकृष्णका वासुदेव नाम ही सात्वत वंशके लोगोंमें यह मत पहले परमेश्वरवाची हुआ, तोभी ऐसा दिखाई निकला, अतएव यह स्वाभाविक है कि देता है कि भगवनीताके समयमें यह चतु- । उस वंशकी पूज्य विभूतियाँ इस मतमें यूंह सिद्धान्त नहीं निकला था, क्योंकि अधिकतर आई। श्रीकृष्णके साथ बलदेव- गीतामें इसका वर्णन कहीं नहीं है। की भक्ति उत्पन्न हुई और वह अभीतक परन्तु महाभारतसे हम यह दिखा सकेंगे हिन्दुस्थानमें प्रचलित है। महाभारतमें तो कि धीरे धीरे यह सिद्धान्त बढ़ता गया। एक जगह कहा है कि बलदेव और यह सच है कि भीष्मस्तवमें इस मतका श्रीकृष्ण श्रीविष्णुके समान ही अवतार उल्लेख है, परन्तु उसमें संकर्षण नाम पर-, हैं (आदि ५० अ० १६७)। बलदेवके मेश्वरके ही लिए आया है और उसका मन्दिर अभीतक हिन्दुस्थानके कुछ स्थानों- अर्थ भिन्न ही किया है :- "मैं उस पर- में हैं। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में वासुदेव मात्माकी उपासना करता हूँ जिसे संक- और बलदेव दोनों नाम ईश-स्वरूपी धर्म- पण कहते हैं, क्योंकि संहार-कालमें वह प्रवर्तकके अर्थ में आये हैं । अर्थात् उनके जगन्को आकर्षित कर लेता है।" अर्थात् समय ये ही दो व्यक्ति सामान्यतः लोगोंमें परमेश्वरका संकर्षण नाम यहाँ अन्य मान्य थे। केवल प्रद्युम्न और अनिरुद्ध कारणोंसे दिया गया है । एक व्यूहसे दो नाम सात्वत या पांचरात्र मतमें ही हैं व्यूह, दोसे तीन और तीनसे चार व्यूह- और वंश-परम्परासे सात्वतोंके मतमें की कल्पना बढ़ती गई जिसका हाल महा- उनकी भक्तिका रहना भी स्वाभाविक है। भारतमें दिया है। अर्थात् पूर्व कालमें यानी भीष्मस्तवमें इन सात्वत गुह्य नामोका गीताके कालमें एक ही वासुदेवरूपी ऐसा उल्लेख किया है :- व्यूहका होना दिखाई देता है । वासुदेव- चतुर्भिश्चतुरात्मानं सत्वस्थं सात्वतां पतिम् । की सरल व्याख्या वसुदेवका पुत्र वासु- यं दिव्यैर्देवमचंति गुयैः परमनामभिः ॥ देव है; परन्तु पांचरात्र-मतमें उसकी शान्तिपर्वके ३३६ वै अध्यायमें नारा- व्याख्या और ही हुई, जो आगे बतलाई यण नारदसे आगे कहते हैं-"जिसका गई है। ऐसी ही व्याख्या संकर्षण, प्रद्युम्न शान निरुक्तसे होता है वह हिरण्यगर्भ और अनिरुद्धकी भी निकल सकना संभव जगजनक चतुर्वक्र ब्रह्मदेव मेरी प्राशासे है। शान्तिपर्वके २८० अ० में कहा है कि सब काम करता है और मेरे ही कोपसे श्रीकृष्णने मूर्त स्वरूप लिया: तथापि वह रुद्र हुआ है। पहले जब मैंने ब्रह्मदेवको उपाधि वर्गीसे निरुद्ध या बद्ध नहीं था, : पैदा किया तब उसे पेसा वर दिया कि- इसीसे उसे अनिरुद्ध कहते हैं। सहज ही "जब तू सृष्टि उत्पन्न करेगा, तब तुझे उसी अर्थमें यानी जीव, मन और अहंकार- पर्यायवाची अहंकार नाम मिलेगा, और के अर्थमें थे शब्द माने गये। चतुर्व्यहकी जो कोई वर-प्राप्तिके लिए तपश्चर्या करेंगे यह कल्पना बेदान्त, सांख्य या योग मतोले उन्हें तुझसे ही वर-प्राप्ति होगी। देवकार्य- भित्र है और पांचरात्र मतकी स्वतंत्र है। के लिए मैं हमेशा अवतार लूँगा, तब तू ६६