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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा *

D भारतका विस्तार कैसे किया है इसलिये मुखसे दिलाया गया है वह चमत्कारिक हमने यहाँ इस विषयका प्रतिपादन है। "हे यदुनन्दन, ऐषोक प्रकरणमें तुमने विस्तार-पूर्वक किया है। परन्तु स्मरण ऐसी प्रतिज्ञा की ही थी" यह कहकर रहे कि सौति-कृत कुल ग्रन्थके उदात्त- कुन्तीने महाभारतके ऐषोकपर्वका जो स्वरूपमे इस विस्तारसे कुछ भी न्यूनता प्रमाण दिया है वह सचमुच अतर्क्ष्य है। मही पाने पाई है और इसी लिये कहना परन्तु जब ग्रन्थका विस्तार बहुत अधिक चाहिये कि इस समस्त ग्रन्थको व्यास- हो गया, तब उसके प्रकरणोंका प्रमाण कृत मानना किसी प्रकार अनुचित न कथाके पात्रोंके द्वारा दिया जाना अपरि- होगा । यद्यपि २४००० श्लोकोंके भारतका हार्य हो गया। अर्थात् यही कहना चाहिये रूपान्तर एक लाख श्लोकोंके महाभारतमें कि यहाँ सौतिका पीछेका कर्तृत्व व्यक्त हो गया है, तथापि उसमें असम्बद्धता होता है । अन्तमें हमें महाभारतकी काव्यो- अथवा परस्पर विरोध प्रायः नहीं होने त्कृष्टताका विचार करना है। पाया है। इस काममें सौतिका चातुर्य महाकाव्यकी दृष्टिसे भारतकी निःसन्देह वर्णनीय है। सौतिका कवित्व भी किसी प्रकार छोटे दर्जेका नहीं है। श्रेष्ठता। उसपर व्यासजीकी कवित्व-शक्तिका जो भाग इस प्रकार बढ़ाया गया है प्रतिबिम्ब होनेके कारण समस्त ग्रन्थ उसे यदि अलग कर दें, अथवा उसकी अत्यन्त रमणीय हो गया है । संक्षेपमें यह ओर ध्यान न दें, तो व्यासजीकी मूल कहना चाहिये कि सौतिके महाभारतमें कृति किसी अत्यन्त मनोहर मृर्तिके समान दोष देने योग्य बहुत स्थान नहीं है। अल- हमारी आँखोंके सामने खड़ी हो जाती बत्ता दो स्थानों में उसको भूल प्रकट रूपसे है। यहाँ इस सुन्दरता और मनोहरताका देख पड़ती है। यह सचमुच बड़े आश्चर्य कुछ विचार करनाअनुचित न होगा । इस की बात है कि युधिष्ठिर भीष्मपर्वमें जगतमें जो चार या पाँच अत्यन्त उदात्त शल्यसे कर्णका उत्माह-भङ्ग करनेकी और रमणीय महाकाव्य है, उनमें व्यास- प्रार्थना करनेके समय कहता है कि जीका यह आर्ष महाकाव्य सबसे अधिक 'उद्योग' में तुमने जो वचन दिया है उसे श्रेष्ठ कोटिका है । यूनानी तत्त्वज्ञ अरिस्टा- अब पूरा करो। जिस समय युधिष्टिरनं टलने होमरके इलियडके श्राधारपर महा- रणभूमिमें यह प्रार्थना की उस समय न काव्यका यह लक्षण बतलाया है:-"महा- तो व्यासजीका भारत था और न सौति काव्यका विषय एक होना चाहिये । वह का महाभारत । ऐसी अवस्थामें युधिष्ठिर विषय कोई बहुत बड़ा, अत्यन्त, विस्तृत कैसे कह सकता है कि 'उद्योग' में अर्थात् और महत्त्वका प्रसङ्ग हो। उसके प्रधान- उद्योगपर्वमें तुमने वचन दिया था ? इसी पात्र उच्च वर्णके हों और उनका चरित्र प्रकार अश्वमेधपर्वमें कुन्ती श्रीकृष्णसे उदात्त हो । ग्रन्थकी भाषा और वृत्त कहती है-"ऐषीकमें तुमने वचन दिया था गम्भीर हो और काव्यमें विविध सम्भा, कि यदि उत्तराके गर्भसे मृत पुत्रका ही षण तथा वर्णन हों।" पश्चिमी विद्वानोंका जन्म होगा तो तुम उसे ज़िन्दा कर दोगे, बतलाया हुआ महाकाव्यका यह लक्षण, इसलिये अब उस वचनको पूग करो।" हमारे यहाँके साहित्य शास्त्रकारोंके बत- यहाँ भी ऐषीकपर्वका जो प्रमाण कुन्तीके लाये हुए लक्षखसे कुछ अधिक भित्र