पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५९१

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भगवद्रीता-विचार । ® भगवङ्गीता मूल भारतकी ही है। और "युद्धयस्व विगतज्वर, अब यहाँ यह शङ्का होती है कि भग- "मामनुस्मर युद्धय च" इत्यादि उप- | देश भी बार बार दिया गया है। विश्वरूप वदगीताका सम्पूर्ण अन्य तत्वज्ञान-विष- दर्शनमें भी समस्त भारतीय युद्धकी ही यक है, इसलिए प्रारम्भमें महाभारतकी | कल्पना पाई जाती है और वहाँ यह दृश्य कथाके साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध न | होगा; और इसी लिए यह क्यों न मान दिखाया गया है कि विश्वरूपके भयानक जबड़ेमें भीष्म,दोण आदि असंख्य वीर लिया जाय कि उसको एक उत्तम प्रन्थ समझकर सौतिने अपने महाभारतमें कुचले जा रहे हैं । अर्थात् यह बात स्पष्ट है कि जिस भगवदीतामें विश्वरूप-दर्शन अन्य आख्यानोंके समान शामिल कर है उसका सम्बन्ध भारतीय युद्ध के साथ दिया होगा । कुछ लोगोंकी तो यह अवश्य होना चाहिए । वह सौतिके कल्पना है कि भगवद्गीता मृल भारती महाभारतका भाग नहीं है, अर्थात् हमने इतिहाससे सम्बद्ध नहीं थी और न निश्चित किया है कि सौतिने भगवद्गीता. • उसको श्रीकृष्णने कहा ही है। उसको को वर्तमान रूप नहीं दिया है, किन्तु यह भगवान् नामक गुरुने कहा है और सौति- ने अपने महाभारतमें शामिल कर लिया ! कप उसके सामने पहलेसे ही पूर्णतया उपस्थित था । तब ऐसी कल्पना करनेसे है । तत्वज्ञानके सब ग्रन्थों अथवा क्या लाभ है, कि भारतीय युद्ध-कथाके आख्यानोंको एकत्र कर लेनेका सौतिका 'उद्देश था ही । तब इस उद्देशके अनुसार साथ सम्बद्ध रूप किसी दूसरे व्यक्तिने पहले ही दे दिया होगा ? संक्षेपमें यही यह क्यों न कहा जाय कि सौतिने भग- कहा जा सकता है कि गीता व्यास अथवा बदूगीताको महाभारतमें शामिल कर वैशंपायनके मूल भारतका ही भाग है। लिया है ? सारांश, यह भी तो कैसे माना इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि भग- जा सकता है कि भगवद्गीता मूल वद्गीतामें श्रीकृष्णके ही मतोंका उद्घाटन भारतका एक भाग था ? हमारे मतसे है। यह आवश्यक और स्वाभाविक भी है यह कल्पना क्षण भर भी स्थिर नहीं रह कि जिस भारत-ग्रन्थमें श्रीकृष्ण और सकती। यथार्थमें भगवद्गीताकी कल्पना अर्जुनका प्रधान रूपसे इतिहास दिया श्रीकृष्ण और अर्जुनके अतिरिक्त हो हो | गया है, उसी भारत-ग्रन्थमें श्रीकृष्णाके नहीं सकती। भगवद्गीताके उपदेशका तत्वज्ञानकी भी कुछ चर्चा हो । इस दृष्टि- प्रारम्भ जिस उत्तम श्लोकस हाताह से देखने पर आश्चर्य नहीं होता कि वह श्लोक यदि भगवद्गीतामें न हो तो श्रीकृष्णके तन्वोपदेशका विवेचन करने- उसे गीता कहेगा ही कौन ? वाली भगवद्गीताको भारतका ही एक अशोच्यानन्यशोचस्त्वंप्रज्ञावादांश्वभाषसे। भाग होना चाहिए । जिस ग्रन्थमें नर गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥ और नारायणको विजयका वर्णन है उस इस उदात्त श्लोकसे ही उपदेशका मूल भारत ग्रन्थमें ही नर-नारायणके भारम्भ उचित रीतिसे हुआ है और सम्वाद रूपसे श्रीकृष्णके तत्वज्ञानका इसका सम्बन्ध भारतीय युद्धके ही साथ उद्घाटन होना चाहिए । अधिक क्या है। भगवद्गीतामें बार बार यही चर्चा भी कहा जाय, यह बात तो महाकविकी की गई है कि युद्ध किया जाय या नहीं। अत्यन्त उदात्त काव्य-कलाके अनुरूप ही