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महाभारतमीमांसा

8 महाभारतमीमांसा * या उत्सम छन्द-रचनाकी दृष्टिसे यही तथा विशाल कल्पनासे परिपूर्ण हमारे अनुमान करना पड़ता है कि भगव- सन्मुख उपस्थित है। उसमें न तो कहीं दीताको एक ही अत्यन्त उदात्त कवित्व- मिलावट है, न कहीं जोड़ है और न शक्तिके पुरुषने बनाया है। भगवद्गीताकी पीछेसे शामिल किया हुआ कोई भाग भाषा बहुत जोरदार, सरल और सादी देख पड़ता है। उसकी सम्पूर्ण मन्य है। हम पहले लिख चुके हैं कि जिस आकृति अथवा छोटे छोटे मनोहर भाग समय संस्कृत भाषा प्रत्यक्ष व्यवहारमें ' एक ही प्रतिभासे उत्पन्न हुए हैं। बोली जाती थी उस समयकी अर्थात् वर्त- ' "न योत्स्ये इति गोविन्दमुक्स्था मान महाभारतके पहलेकी यह भगवद्गीता तूष्णीं बभूव ह” यह उसकी नीव है। पाणिनिके व्याकरणके नियमोंके सार उस भाषाकी गलतियाँ बतलाना, । है; विश्वरूपदशेन उसका मध्य मानो तुलसीकृत रामायणकी हिन्दीमें भाग है और "करिष्ये वचनं तव" 'भाषाभास्कर के नियमानुसार गलतियाँ उसका शिखर है । सांख्य, बतलाना है। भाषाके मृत हो जाने पर। उसके प्राप्त व्याकरणको दृषिसे किसी योग, वेदान्त और भक्ति उसकी प्रन्थमें गलतियाँ बतलाई जा सकती हैं। चार भुजाएँ हैं और चारों कोनोंके परन्तु पाणिनीके पूर्वकी भगवद्गीताकी चार मीनार हैं। कर्मयोग उसके बोल-चालकी संस्कृत भाषाकी गलतियाँ बीचका प्रधान मीनार है। भिन्न बतलाना निरर्थक है । भगवद्गीताके अनु-1 प्टुप् श्लोकोका माधुर्य बहुत ही श्रेष्ठ भिन्न चार तत्त्वज्ञानोंके अदर संग- . दर्जेका है। यह बात हाप्किनने अनेक मर्मरकी चारों दीवारों पर रंगीन श्लोकोंके ह्रस्व-दीर्घ-अनुक्रमका विचार , संगमर्मरके पत्थरोंसेहीखुदे हुए हैं कर महाभारतके अन्यान्य भागोंके अनु. और इनके चारों दरवाजों के अन्दर स्टभोकी तुलनासे दिखा दी है। भगवद्- 1 स्थित है।" गीतामें यह बात कहीं देख नहीं पड़ती कि उसके किसी एक अध्यायमें भाषाकी इस प्रकार इस दिव्यतत्वज्ञानात्मक ग्रन्थ- सुन्दरता अथवा छन्दोंकी मधुरता न्यूना- की अलौकिक सुन्दरता हम सब लोगों धिक हो। इसी प्रकार विषयके प्रति- को चकित कर देती है। सारांश, इस पादनमें कहीं विरोध भी देख नहीं सर्वश्रेष्ठ गीतामें कहीं भी विसरश मिला. पड़ता। अधिक क्या कहा जाय, सभी वट नहीं देख पड़ती। उसमें एक भी विषय एकसी ही दिव्य कल्पना शक्तिसे ऐसा विचार नहीं है जो उसकी उदात्त वर्णित हैं और उसमें महातत्वज्ञानात्मक कल्पनाको शोभा न दे अथवा उससे गम्भीर विचार प्रगल्भ और प्रसादयुक्त मेल न खाय । यह भी नहीं कहा जा वाणीसे किया गया है। अतएव सिद्ध है सकता कि किसी एक स्थानमें भाषा या कि भगवद्गीताका सम्पूर्ण प्रन्थ एक ही कल्पना कुछ कम रमणीय अथवा गम्भीर बुद्धिमान कविके प्रतिभा सम्पन्न मस्तिष्क- है। अन्तम बिना यह कहे नहीं रहा को सुष्टि है; और वह ताजमहलकी जाता कि यह अलौकिक प्रन्थ एक ही अनुपम इमारतके समान सुन्दर, सुबद्ध | महा बुद्धिमान् कर्ताकी कृति है।