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महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा, है और ऐसा नहीं दिखाई देता कि वह परिशिष्टका भी पठन करते हैं । यदि यह और कहीसे लिया गया हो। उपनिषदोंमें बात ध्यानमें रखी जाय कि वैदिक ब्राह्मण तो वह नहीं है। हाँ, यह भी कहा जा जो वेदाङ्ग पढ़ते हैं, उनमें निरुक्तके ये दोनों सकता है कि कल्पकी यह कल्पना, अध्याय भी पढ़ते हैं, तो यही अनुमान सम्पूर्ण वैदिक साहित्यमें नहीं है । निकलता है कि ये दोनों अभ्याय वेवाके संपूर्ण वैदिक साहित्यकी छान बीन कर्ता यास्कके ही हैं। इससे यह स्पष्ट करनेकी न तो आवश्यकता ही है और न है कि भगवद्गीता यास्कके पहलेकी है। शक्यता हो । “वैदिक इन्डेक्स" नामक कालके सम्बन्धमें दूसरा एक और अनमोल ग्रन्थमें वैदिक साहित्यकी चर्चा महत्वका श्लोक भगवद्गीतामें है। वह की गई है। उसमें कल्प शब्द ज्योतिषके यह है :- अर्थमें प्रयुक्त नहीं किया गया। "धाता महर्षयः सप्त पूर्वे यथापूर्वमकल्पयत्" वाक्यसे यह नहीं 'मनवस्तथा। कहा जा सकता कि वैदिक कालमें सृष्टि मन्द्रावा मानसा जाता की पुनर्रचनाकी कल्पना न होगी । परन्तु । येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ मुधिरचनाके कालकी, कल्पकी अथवा इस श्लोकका पूर्वार्ध बहुत कुछ एक हजार युगको कल्पना ज्योतिष- ! कठिन हो गया है। क्योंकि कुल मनु विषयक अभ्यासमें कुछ समयके पश्चात् चौदह माने गये हैं और ज्योतिष तथा सब निकली होगी । मुख्यतः युगकी ही : पुराणोंका यह मत है कि भारती-युद्धतक कल्पना पूर्णतया वैदिक नहीं है । वैदिक सात मनु हुए। तब सहज ही प्रश्न उप- कालमें चार युग थे: यह स्पष्ट है कि स्थित होता है कि यहाँ चार मनु कैसे कहे यह कल्पना पञ्चवर्षयुगसे बड़े युगकी गये। या तो चौदह कहने चाहिए थेया थी: परन्तु ऐसा नहीं जान पड़ता सान। इस कठिन समस्याके कारण कई कि वैदिक कालमें कलि आदि युगोकी लोग इस पदके तीन खण्ड करते हैं:- अवधिका ठीक निश्चय हुआ हो। यह 'महर्षयः सप्त', 'पूर्वे चत्वारः', और 'मन- कालगणना किसी समय उपनिषत्-काल- वस्तथा। इनका कहना ऐसा दिखाई में निश्चित हुई है और ऐसा दिखाई देता देता है कि इससे वासुदेव, संकर्षण, है कि वहाँसे पहलेपहल भगवद्गीता- : प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये चार व्यूह लेने में ज्योंकी त्यों रख ली गई है। हमारा चाहिएँ, परन्तु स्वयं वासुदेव यह कैसे अनुमान है कि जब इसका उल्लेख और कहेगा कि ये चार व्यूह मुझसे पैदा हुए। कहीं नहीं पाया जाता, तब निरुक्तके पहिला व्यूह वासुदेव प्रज, अनादि पर- अवतरणका श्लोक भगवद्गीतासे लिया ब्रह्म-स्वरूप माना गया है, तो फिर वही गया है। हाँ, यह बात अवश्य है कि यह वासुदेवसे कैसे पैदा हो सकता है ? यदि अवतरण निरुक्तके १२ वें अध्यायमें है यहाँ व्यहोके कहनेका अभिप्राय होता तो और अन्तके १३ वें और १४ वे दोनों तीन व्यह बतलाने चाहिए थे। इसके अध्याय निरुक्तके परिशिष्टके अन्तर्गत सिवा यह भी हम आगे देखेंगे कि 'सप्त माने गये हैं। यह मानने में कोई आपत्ति ऋषयः' पद भी ठीक नहीं है। अर्थात् इस नहीं कि यह परिशिष्ट यास्कका ही है: श्लोकका अर्थ ठीक नहीं जमता। क्योंकि वैदिक लोग निरुक्तके साथ इस परन्तु इस अर्थके न जमनेका कारण