ॐ भगवद्रोता-विचार । * ५०१ - होगा। हमारा अनुमान है कि इसमें प्रायः पद बहुत ही थोड़े और छोटे हैं। समस्त सभी हमसे सहमत होंगे। वह परम्परा विवेचन बोलनेकी भाषाके सदृश सरल यह है:-सबसे पहले ऋग्वेद-संहिताकी भाषामें तथा गूढार्थ रहित है । महा- रचना, तत्पश्चात् भारती-युद्ध, तदनन्तर भारतके अनेक स्थलोंमें गूढार्थ श्लोक हैं, शतपथ ब्राह्मणके पहले दस खण्ड, इसके इतना ही नहीं किन्तु कई स्थानों में गूढार्थ उपरान्त बृहदारण्य आदि दशोपनिषद्, शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं। यह स्पष्ट फिर भगवदीता,तदनन्तर वेदाङ्ग-ज्योतिष, है कि बोलनेको भाषामें इस प्रकारके व्यासका निरुक्त और पाणिनिका व्या- शब्दोंका उपयोग कभी नहीं किया करण; इसके बाद वर्तमान महाभारत, जाता। महाभारतके और किसी तत्व- फिर पतञ्जलिका योग-सूत्र तथा बाद-झान विषयक उपाख्यानमें ऐसी सरल रायणका वेदान्त-सूत्र । इस प्रकार प्राचीन और प्रसाद-गुणयुक्त भाषा नहीं है। ग्रन्थोंकी परम्परा स्थिर होती है। इन शान्ति पर्वके अनेक तत्व-ज्ञान-विषयक ग्रन्थोंके भिन्न भिन्न स्थलोंके विवेचनसे सम्भाषणों, श्राख्यानों और सनत्सुजात पाठकोंके ध्यानमें यह शीघ्र आ जायगा । अथवा धर्मव्याध-संवादको पढ़ते समय कि आधुनिक उपलब्ध साधनोंकी परि. विषय और भाषा दोनोंकी क्लिष्टता अनु- स्थितिमें यह परम्परा ठीक जंचती है। भव होती है । परन्तु भगवद्गीतामें ऐसा पतञ्जलिके महाभाष्यसे पतञ्जलिका काल : बिलकुल नहीं होता। भगवद्गीतामें यह ई० सन्से लगभग १५० वर्ष पूर्वका भी प्रवृत्ति कहीं नहीं देख पड़ती कि निश्चित होता है, और इसी हिसाबसं विषयको मूक्ष्मतया छानकर उसके भिन्न शेष ग्रन्थीका काल पूर्वातिपूर्व मानना । भिन्न अंश,भेद और बिलकुल कच्चे विभाग चाहिए। कर दिये गये हो । बुद्धिमान् पाठकके ध्यानमें यह बात अवश्य श्रावेगी कि हर भगवद्गीताकी भाषा। एक विषयका प्रतिपादन गीतामें. उप- भगवद्गीताके सम्बन्ध अभीतक हम- निषद्के तुल्य ही किया गया है। हर एक ने ग्रन्थ, कर्त्ता और कालके विषयमें विवे-' विषयका कथन व्यापक-दृष्टिसे मुख्य चन किया है । अब हम भगवद्गीताकी | सिद्धान्त पर ध्यान देकर किया गया है, भाषाके सम्बन्धमें कुछ अधिक विचार न कि निरर्थक लम्बा चौड़ा विस्तार करेंगे। हम अन्यत्र कह चुके हैं कि महा- करके या सूत्रमय रूपसे थोड़े में ही । भारतको भाषासे भगवद्गीताकी भाषा । सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात तो अधिक सरल, जोरदार और गम्भीर है। यह है कि जिस प्रकार उपनिषदों में जिस प्रकार कालकी दृष्टिसे भगवद्गीता वक्तता-पूर्ण भाषाकी छाया हमारे मन उपनिषदोंके अनन्तरकी और समीपकी ही पर पड़ती है, उसी प्रकार भगवद्गीता- है, उसी प्रकार भाषाकी दृष्टि से यह भी में भी भाषाकी वक्तृता नजर आती है। दिखाई देता है कि भगवद्गीता उपनिषदो- यह ध्यानमें रखना चाहिए कि मत भाषा- के पश्चात्की और उपनिषदोंके समीपकी में वक्तता कभी नहीं रह सकती । यह ही है। इस भाषामें क्रियाओंके पूर्ण प्रयोग बात अति स्वाभाविक है कि मस्तिष्कमें हमेशा आते हैं और उसमें धातु-साधनका जब विषय भरा रहता है, तब सहज- उपयोग नहीं दिखाई देना । समासमें स्फूर्तिका प्रवाह जीती भाषाके द्वाराही
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