ॐ महाभारतमीमाला . % 3D मानी । घाजपेय, राजसूय, अश्वमेध और ऐसी स्थिति आगे बौद्धोंकी उन्नतिके काल- पुरुषमेघकी धूम मची । ऐसे समयमें उप- में सचमुच हुई। जङ्गलोंके बिहार-खान निषदोंके उदात्त विचार शुरू हुए । वेदांती शहरोंके समान बन गये और वे दुराचारी लोग संसार-सुखको अपेक्षा आध्यात्मिक भिक्षुओं तथा संन्यासिनियोंसे भर गये। सुखका महत्व अधिक मानने लगे। विचार- उपनिषदोंके निवृत्ति मार्गका आडम्बर वान् लोगोंने निश्चय किया कि निष्काम- जब बढ़ने लगा तब श्रीकृष्णने अपने दिव्य वृत्तिसे जगत्में रहकर तप करने तथा उपदेशसे उसे तोड़ा। घेदान्त, सांख्य ब्रह्मका निदिध्यास करनेमें ही मनुष्य- और योगकी भ्रान्त कल्पनाओंसे जो लोग जन्मकी सफलता है। शनैः शनैः निवृत्ति- मानने लगे थे कि संसार-त्याग ही जीवन- की यह वृत्ति भी शिखरको जा पहुँची। का इतिकर्तव्य है, उन्हें श्रीकृष्णने मर्यादित जिसके मनमें पाया, वह उठा और चला किया । घर-बार छोड़कर जङ्गलमें जा जङ्गलमें तपस्या करनेके लिए । एक समय बसनेसे संसार नहीं छूटता । इसके विप- ऐसााया कि जिसके दिलमें पाया वही, रीत संसारमें लोलुप होनेसे भी मनुष्य- चाहे वह जिस अवस्थामें क्यों न हो, ! को सच्चा सुख नहीं मिलता । हर संन्यास लेकर ब्रह्मज्ञानका मार्ग पकड़ने एक बानका मध्यबिन्दु रहता है, जिस लगा। उस समय श्रीकृष्णने अपनी दिव्य पर स्थित होनेसे मनुष्यको परम गति भगवद्गीताका उपदेश देकर जन-समाजको मिल सकती है। एक ओर शारीरिक ठीक रास्ते पर यानी प्रवृत्ति तथा निवृत्ति- त्याग करना असम्भव है, तो दूसरी ओर के मध्यवर्ती बिन्दु पर लानेका प्रयत्न ! शारीरिक सुखमें अत्यन्त निमग्न होना भी किया। उनका यह मत न था कि तप · बहुत हानिकर है। वही योगी परम गति- न करना चाहिए या संन्यास न लेना को प्राप्त होगा जो युक्ताहारी तथा युक्त- चाहिए । तपकी योग्यता श्रीकृष्ण खूब विहारी रहेगा या संन्यासी मनसे कर्म- जानते थे। तपशील मनुष्य ही सुखकी ! फलका त्याग कर कर्म करता रहेगा। सची योग्यता जानता है । शारीरिक | सारांश यह कि श्रीकृष्णने एकान्तिक सामर्थ्य और आध्यात्मिक तेज तपसे ही निवृत्ति तथा एकान्तिक प्रवृत्तिका बढ़ता है। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि निषेध किया और लोगोंको मध्यवर्ती तपको ही अपना अन्तिम ध्येय बनाकर बिन्दु पर लानेका प्रयत्न किया । कहनेकी शरीरको व्यर्थ कष्ट देना कदापि उचित आवश्यकता नहीं कि श्रीकृष्णके दिव्य नहीं। क्षणिक वैराग्यसे या मनकी दुर्ब- उपदेशका भी कालकमसे विपर्यास हो लताके कारण ही संन्यास न लेना चाहिए, गया । सैंकड़ों वर्ष पश्चात् श्रीकृष्णके वरन् पूर्ण वैराग्य प्राप्त होने पर तथा दिव्य उपदेशका भी कालक्रमसे चिप- जगतके नश्वरत्वका पूर्ण ज्ञान चित्तमें र्यास हो गया । सैकड़ों वर्षके पश्चात् खिर हो जाने पर ही लेना उचित है। श्रीकृष्णके उपदेशका अर्थ कुछ तो भी यदि ऐसा न हो तो हर कोई क्षणिक समझ लिया गया और प्रवृत्तिकी ओर वैराग्यसे संन्यास लेकर अरण्यवास झुका हुत्रा समाज, घड़ीके लंगरके करने लगेगा, शहरोकी भीड़ जङ्गलमें जा समान, प्रवृत्तिके अन्तिम छोर पर जा बढ़ेगी। इतना ही नहीं, बल्कि समाजका पहुँचा। उसका इस प्रकार जाना अप- नुकसान होगा और उसमें अनीति फैलेगी। रिहार्य हीथा।श्रीकृष्णके पश्चात् हज़ार या
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