पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  1. भगवनीता-विचार ।

- यो हजार वर्षतक जनसमाजमें प्रवृत्तिकी वल्लभाचार्यका मत उत्पन्न हुश्रा; पर अन्ध प्रबलता इतनी बड़ी कि लोग यह मानने और मूढ़ लोगोंने उसका ध्येय कुछका लगे कि कृष्ण-भक्ति अथवा भागवत-मत कुछ बना डाला । इतिहासकी समा- मुखोपभोगका साधन है। लोग मानने लोचनासे इस बातका दिग्दर्शन हो लगे कि जगतमें भौतिक सुख-भोग ही जायगा कि हमारे देशमें आजतक प्रवृत्ति मनुष्यका सर्वोच्च ध्येय है। तब समाज और निवृत्तिके बोचमें लोक-समाज कैसा निवृत्तिकी ओर फिर झुका और बुद्ध, आन्दोलित होता रहा है। महावीर आदि धर्मोपदेशक पैदा हुए। कर्मयोगका उपदेश । उन लगोने निवृत्ति-प्रधान मतका प्रचार : किया; पर धीरे धीरे काल-गतिसे जन- श्रीकृष्णके दिव्य उपदेशका ऐतिहा- समाज निवृतिके उच्च शिखर पर जा सिक महत्व अच्छी तरह समझने के लिए पहुँचा और हज़ारों बौद्ध तथा जैन भिक्षु उपर्युक्त समालोचनाको आवश्यकता थी। और भिक्षुकिणियोंसे शहरके समान श्रीकृष्णके समयमें कुछ लोग वैदिक कर्म ठसाठस भरे हुए विहार कुनीतिके जन्म- करना ही मनुष्यकी इतिकर्तव्यता सम- स्थान बन बैठे । स्वभावतः समाज चक्कर । झते थे और समाजको एक ओर खींचते खाकर फिर प्रवृत्तिकी ओर झुका । वह । थे। दूसरे लोग यह मानते थे कि संसार- फिर इतना झुका कि जहाँ जैनों और को छोड़ जङ्गलमें जाकर औपनिषद् बौद्धोंने वेदको फेक अरण्यवास और पुरुषका निदिध्यास करना ही परम पुरु- संन्यासको गद्दी पर बैठाया था, वहाँ पार्थ है और ऐसे लोग समाजको दूसरी मंडन मिश्र आदि नवीन लोगोंने वेदोको ओर स्वींचते थे। दुर्योधन या पुरुषमेधको फिर गद्दी पर बैठाया, मद्यमांसका सेवन · इच्छा करनेवाला जरासन्ध पहले मतका जारी किया और संन्यासको पदच्युत निदर्शक था, सामने आये हुए युद्धके करके उसे बहिष्कृत कर दिया । झठे · अवसरपर कर्मको त्याग संन्यासकी संन्यासियोंने उस समय संन्यासको इच्छा करनेवाला अर्जुन दूसरे मतका इतनी नीच दशामें पहुँचाया था कि । निदर्शक था । एकको श्रीकृष्णने बलसे संन्यासका नाम लेते ही मंडन मिश्रकी रास्ते पर किया और दूसरेको भग- क्रोधाग्निकी सीमा न रहती थी । इस वद्गीताके दिव्य उपदेशसे । पूर्वाचार्योके प्रकार प्रवृत्तिकी ओर, कर्मकी ओर, उपदेश किये हुए सिद्धान्त, सब धर्मोप- सुखोपभोगकी ओर झुककर जब समाज देशोंके समान, श्रीकृष्णने भी अमान्य दूसरी दिशामें जाने लगा, तब श्रीमत् · नहीं किये । वैदिक कर्माभिमानियोंकी शंकराचार्यने शीघ्र ही निवृत्तिको जागृत कर्मनिष्ठा, सांख्योंको ज्ञाननिष्ठा, योगाभि- कर तथा संन्यासको योग्य स्थान पर मानियोका चित्त-निरोध और वेदान्तियों- बैठाकर समाजको मध्य बिंदुपर स्थिर के संन्यासका उन्होंने आदर किया है। किया। परन्तु निवृत्तिका जोर फिर बढ़ा। परन्तु हर एक मतने जो यह प्रतिपादित रामानुज, मध्य आदि प्रवृत्याभिमानी किया था कि हमारी इतनी ही इति- धर्मोपदेशक पैदा हुए, जिन्होंने फिर कर्तव्यता है, उसका उन्होंने निषेध किया समाजको प्रवृत्तिकी ओर झुकाया ।। है । हर एक मतको उचित महत्व देकर, परिणाम यह हुआ कि कुछ समयके बाद उन सबोंका समन्वय करके, श्रीकृष्णने