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महाभारतमीमांसा

पह • महाभारतमीमांसा है उनका उपयोग अपने नये कर्त्तव्य-सिद्धांत- ! अपनी अमोघ और विध्य पालीसे अकि. के लिए अर्थात् निरपेक्ष और फलेच्छारहित को भली भाँति समझा दिये। इतना ही कर्मके लिए कहा है। उन्होंने भगवद्गीता- नहीं, किन्तु उन्होंने उस समय अपना में मुख्यतः इस बातका प्रतिपादन किया नवीन उपदेशित भक्ति-मार्ग भी मर्जुनको है कि मनुष्य अपना कर्तव्य किस प्रकार समझा दिया। हमारा मत है कि भक्ति- करे । शास्त्रका काम है कि वह कर्तव्यका मार्ग अथवा भागवत-धर्म के पहले उप- निश्चय करे; परन्तु यह निश्चय होनेके देशक श्रीकृष्णसे ही इस मतको भागवत बाद वह क्यों किया जाय और कैसा संज्ञा मिली है । इसीका एक विशिष्ट किया जाय, इसका पूर्ण विवेचन बहुत स्वरूप पांचरात्र मत है। यह ज्ञान श्री. उत्तम रीतिसे किया है। श्रीकृष्णने अर्जुम- 'कृष्णने राज-विद्या, राजगुह्य नामसे भग- को अच्छी तरह समझाया है कि आप- ' वनीतामें बतलाया है और वही, फिरसे त्तियोंसे डरकर या मोहपाशमें फँसकर अन्तम अठारहवें अध्यायके "सर्वधर्मान कर्तव्य-पराङ्मुख होना और जङ्गलमें : परित्यज्य मामेकं शरणं वजार जाकर संन्यास लेना सञ्चे मोक्ष-मार्गपर श्लोकार्धमें अर्जुनको फिर बतलाया है। चलना नहीं है । सारांश, यह है कि श्री. अनन्य भावसे एक परमेश्वरकी प्रेमपूर्वक कृष्णने भगवनीतामें अर्जुनको यह बत- भक्ति करके उसकी शरणमें लीन होनेका लाया है कि वेद, वेदान्त, सांख्य और मोक्ष-मार्ग सबके लिए खुला और योगका सत्कार करना उचित है। साथ सुलभ है । संन्यास, योग या यज्ञादि ही यह भी बताया है कि इन सबमें जो साधन सबके लिए सुलभ और खुले नहीं अपनी अपनी शेखी मारी गई है वह सब हैं । यज्ञयाग हजारों रुपयोंके खर्च के व्यर्थ है। उन्होंने यह भी समझा दिया कि बिना नहीं हो सकते या शास्त्रीके सूक्ष्म प्रवृत्तिकोनिवृत्तिरूप और निवृत्तिकोप्रवृत्ति ज्ञानके बिना नहीं हो सकते । इसी रूप कैसे देना चाहिए तथा अपना कर्त्तव्य प्रकार बुद्धिमानों और निग्रहवानोंके कैसे करना चाहिए । एक दृष्टिसे देखा सिवा संन्यास और योग दूसरे किसी- जाय तो भगवनीता सबसे पुराना सांख्य- को प्राम नहीं हो सकते। तब मनुष्य- शाल है, तथा वेदान्त-शास्त्र और योग- के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि शान भी है। इन सब शालोके माम्य द्रव्यहीन, बुद्धिहीन और संसारमें फंसे सिद्धान्त यदि कहीं सङ्कलित किये गये हैं हुए जीवोंके लिए कुछ तरणोपाय है या और प्रोजस्वी वाणीसे बतलाये गये हैं। नहीं ? परन्तु उस समय तो यह प्रम तो बस भगवद्गीतामें । इसीसे भग- विशेष रीतिसे उपस्थित था । भारती वन्द्रीताके लिए उपनिषद्, ब्रह्म-विद्या और आर्य जब हिन्दुस्थानमें आये तब उनके योग-शाल आदि विशेषण यथार्थ ही तीन वर्ण थे। हिन्दुस्थान में जब भार्योकी, विशेषतः चन्द्रवंशी क्षत्रियोंकी बस्ती सब नवीन भक्ति-मार्ग। जगह फैली, तब चौथा शूद्र वर्ण उनमें आकर मिला। उस समय अनेक मिश्र वर्ण प्राचीन प्राचार्योंके उपदेश किये हुए उत्पन्न हुए । बहुतेरे वैश्य खेती करने वेट और खेदान्त. सांख्य और योग सभी- लगे और धीरे धीरे वेद और शिक्षासे के मान्य और उत्तम अंश श्रीकृष्णने पराङ्मुख होगये। स्त्रियाँसब वर्णोकी होने