है महाभारतमीमांसा वर्तमान रामायण-प्रन्थ उस प्रवासीके है ही नहीं। बहुत हो तो इतनाही कहा समयमै था, तथापि वह कुछ एक लक्ष्मा- जा सकता है, कि उसके समयमें एक स्मक नहीं है। वह बहुत ही छोटा यानी लक्षात्मक महाभारत नहीं था और यथार्थ- इसके चतुर्थाशके लगभग है। तात्पर्य, यह में वह था भी नहीं। परन्तु इससे यह नहीं उल्लेख महाभारतको ही लागू होता है। कहा जा सकता कि उस समय भारतका डायोन क्रायसोस्टोमका समय यदि ईसवी अस्तित्व ही नहीं था। इसी लिये तो हमने सन् ५० के लगभग माना जाय, तो यह महाभारतके समयको अशोकका सम- स्पष्ट है कि उस समय दक्षिणके पांड्य कालीन माना है । चन्द्रगुप्तके समयमें एक देशमें महाभारत प्रचलित था और इसी लाख श्लोकोका महाभारत नहीं होगा । लिये सौतिका महाभारत उसके प्रतेक वर्ष चन्द्रगुप्तके नाती अशोकके समयमें वह पहले बन चुका होगा। इस ग्रीक वक्ता- तैयार किया गया होगा; अथात् ईसवी का उल्लेख सबसे पहले वेबरने किया है सन्के लगभग २५० वर्ष पहले वह उत्तर और उसकी समझके अनुसार 'इलियड हिन्दुस्थानमें तैयार होकर करीब ३०० वर्ष में शब्दसे महाभारतका ही बोध होता है। दक्षिणको ओर कन्याकुमारी तक प्रचलित वह कहता है-"जिसकी श्लोक-संख्या हो गया होगा: और वहाँ सन् ५०ई० के इतनी बड़ी हो कि जितनी महाभारतको करीब डायोन क्रायसोस्टोमको दृष्टिगोचर है, ऐसे महाकाव्यके हिन्दुस्थानमें होनेका हुश्रा होगा। सबसे पहला प्रमाण डायोन क्रायसोस्टोम- इस प्रकार महाभारतके कालकी सबसे के लेखमें पाया जाता है। आगे चलकर नीचेकी मर्यादा सन् ५० ई० है। डायोन वेषर कहता है-“जब कि मेगास्थिनीजके क्रायसोस्टोमकी साक्षी अत्यन्त महत्व- प्रथमें महाभारतका कोई उल्लेख नहीं है, की और बहुत दृढ़ है। उसमें एक लक्षा- महाभारतका प्रारम्भ मेगास्थिनीजके बाद मक ग्रन्थका उल्लेख स्पष्ट रीतिसे पाया हुभा होगा।" परन्तु यहाँ पर वेबरकी भूल जाता है । ऐसी दशामें यह बड़ी भारी है। यह बात प्रसिद्ध है कि मेगास्थिनीज नाम- भूल है कि बहुतेरे लोग इस साक्षी अथवा का प्रीक राजदूत हिन्दुस्थान देशमें चन्द्रगुप्त प्रमाणकी ओर पूरा पूरा ध्यान नहीं देते सम्राट्के दरबारमें था । अर्थात् उसका और महाभारतके समयको सन्५० ईसवी- समय ईसवी सन् ३०० है। उस के इस पार घसीट लानेका प्रयत्न करते हैं। समय हिन्दुस्थानके सम्बन्धमें जो जो बातें जान पड़ता है कि मानो ऐसे विद्वानोको उसे मालूम हुई उन सबको उसने इंडिका इस साक्षी अथवा प्रमाणका कुछ पता ही नामक ग्रन्थमें लिखा था । यद्यपि मालम न हो। हम ऊपर कह पाये हैं कि वह प्रन्थ नष्ट हो गया है, तथापि अन्य प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रोफेसर वेबरको प्रायकारों द्वारा दिये हुए उसके बहुतेरे | यह प्रमाण मालूम था। इसलिये अबतक अवतरण पाये जाते हैं। यह बात सच है यह प्रमाण काटकर रद न कर दिया जाय, कि अवतरणोंमें भारत जैसे अन्धका उल्लेस्व तबतक महाभारतका समय सन् ५० नहीं है। परन्तु जब कि मेगास्थिनीजका ईसवीके इस पार किसी तरह घसीटा नहीं समस्त ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं जा सकता। अब इस सम्बन्धमें अधिक है, तो निश्चयपूर्वक यह भी नहीं कहा जा विचार न करके हम इस बातको सोधेने सकता कि उस प्रन्थमें भारतका उल्लेख कि महाभारतके कालकी ऊँची मर्यादा
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