पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७२
महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा - मात्रासमका और आर्या, गीति और उप- यद्यपि अनुष्टु के हव-दीर्घ-क्रम विशेष गीति, ये सब वृत्त हैं। ये भिन्न भिन्न वृत्तं | रीतिसे निश्चित नहीं थे, तथापि इस कब और कैसे उत्पन्न हुए इसका निश्चित दीर्घके क्रमानुसार उसके मित्र मिल मेव इतिहास नहीं बतलाया जा सकता। यह हो जाते हैं और उसमें भिन्न भिन्न माधुर्व बात प्रसिद्ध है कि कालिदासके समयसे प्रकट होता है। इस विषयका विचार इन सब वृत्तोका उपयोग होता चला हाप्किन्सने विस्तारपूर्वक किया है जिसका पाया है। ये वृत्त वैदिक नहीं है : परन्तु उल्लेख आगे चलकर किया जायगा । वह निर्विवाद सिद्ध है कि वैदिक वृत्तोंसे अनुष्टुभके चार चरण और त्रिष्टुभके भी ही इन वृत्तोंकी उत्पत्ति कालिदासके पहले चार चरण सामान्यतः माने जाते हैं: हुई थी। आर्या-वृत्तका उपयोग बौद्ध और परन्तु कभी कभी दो चरण और भी लगा जैन ग्रन्थों में बहुत प्राचीन समयसे देख दिये जाते हैं। अनुष्टुभको साधारण तौर पड़ता है। सारांश, इन वृत्तोंके उपयोगसे पर श्लोक कहते हैं। जब किसी ग्रन्थ- महाभारतके कालका निर्णय करनेके लिये की श्लोक-संख्याका विचार किया जाता कुम भी साधन नहीं मिलता। और जो है, तब ३२ अक्षरोका एक अनुष्टुभ् मान काल हमने निश्चित किया है उसके विरुद्ध कर ही गणना को जाती है । गद्य ग्रन्थकी भी कोई बात नहीं पाई जाती। अनुमान भी गणना इसी हिसाबस, अर्थात् ३२ है कि सौतिने रुचि-वैचित्र्यके लिये, अक्षरोंके एक श्लोकके हिसाबसे, को अथवा इस प्रतिज्ञाकी पूर्ति के लिये कि- जाती है । त्रिष्टुभ् वृत्सके श्लोकमें ११ "जो महाभारतमै नहीं है, वह अन्यत्र कहीं | अक्षर होते हैं। जैसे- महीं है," इन भिन्न भिन्न वृत्तोंके श्लोको- सन्ति लोका बहवस्त नरेन्द्र। का उपयोग किया होगा । अब हम इस वृत्तके और भी अनेक उदाहरण महाभारतके प्रधान छन्द अनुष्टुभ श्रोर है। यह अनुमान किया जाता है कि जिन त्रिष्टुमका विचार करेंगे। जिन स्थानोंमें इस नमूनेके श्लोक पाये अनुष्टुभ् और त्रिभ वैदिक वृत्त हे। जाते हैं वे बहुत प्राचीन भाग हैं । यह अनुष्टुभ-वृत्तके प्रत्येक पादमें आठ अक्षर बतलाया जा चुका है कि भगवद्गीता और त्रिष्टुभ-वृत्तके पदमें ग्यारह अक्षर अत्यन्त प्राचीन भाग है। सनत्सुजातीय होते हैं। इन अक्षरोका हस्व-दीर्घ-क्रम भी इसी प्रकारका श्राख्यान है। व्यासजी- निश्चित नहीं है। अनुष्टुभ् छन्दमें प्रथम को ऐसे श्लोकोंकी रचना करनेकी बार पादका पाँचवाँ अक्षर बहुधा दीर्घ होता बार स्फूर्ति होती थी। कहीं कहीं तो पूरा है। यह एक ऐसी विशेषता है जो वैदिक अध्याय ही ऐसे श्लोकोंका हो गया है, अनुष्टुभकी अपेक्षा व्यास और वाल्मीकिके और कहीं कहीं अनुष्टुभ् श्लोकोंके बीच- अनुष्टुभमें नूतन देख पड़ती है । वैदिक में ही एक दो श्लोक देख पड़ते हैं। कालसे इस ओरके समयमें धीरे धीरें सरल और ज़ोरदार भाषामें, सुगमतासे त्रिष्टुभका उपयोग होने लगा। तब उसके | अर्थको प्रकट कर देनेवाले, ऐसे शवोको- हस-दीर्घ-क्रम पूरी तरह निश्चित हो गये की रचना-शक्ति व्यासजीक भाषा-प्रभुत्व- और अन्तमें वे रामायणमें तथा रामायणके की साक्षी है। रामायणकेसे श्लोक कुछ अनन्तरके काव्योंमें इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा अधिक सुबा हो तो भी वे इतने सरल प्रादि वृत्तोंके स्वरूपमें देख पड़ने लगे। और स्वभाषिक-मामूली बोल चाखके