पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/११

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सम्पादकीय फरवरी, 1914 की 'सरस्वती' में सत्यशोधक का एक लेख द्विवेदीजी ने प्रकाशित किया था-'इतिहास का अध्ययन' । इसके प्रारम्भ में कहा गया है-"आजकल हिन्दी-संसार का ध्यान इतिहास की ओर दिन-दिन अधिक होता जा रहा है । उपन्यासों के साम्राज्य पर इतिहास और जीवन-चरित ने हमला कर दिया है। यद्यपि हमारे यहाँ गिबन, मेकाले या फीमेन नहीं उत्पन्न हुए तयापि जितना ऐतिहासिक साहित्य प्रकाशित हुआ है और उसका जैसा स्वागत हुआ है उससे भविष्यत् में ऐतिहासिक उन्नति की बहुत कुछ आशा होती है।" यानी माहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा [उपन्यास] से भी अधिक इतिहासपरक लेख एव जीवनीपरक सामग्री की लोकप्रियता 1914 में बढ़ गयी थी। यद्यपि इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य होना अभी बाकी था । महज ही उत्सुकता हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में इतिहास एवं जीवन-चरित के क्षेत्र में क्या लिखा जा रहा था, जिसके कारण उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी थी। उन सामग्रियो में एक बड़ा हिस्सा महावीरप्रसाद द्विवेदी का लिखा हुआ था। भारतीय इतिहास से संबंध रखने वाले लेखों को पाठक 'द्विवेदी रचनावली' के तीसरे खण्ड मे पढ़ चुके है । चौथे खण्ड में द्विवेदीजी की विश्वव्यापी इतिहास दृष्टि से पाठक परिचित होंगे। इसमें विश्व के अधिकांश भूखण्ड से संबंध रखने वाली ऐतिहासिक बातों के अलावा अनेक विदेशी महापुरुषों के जीवन-चरित भी सकलित किये गये हैं । इन सामग्रियों में अत्यधिक विविधता होने के कारण उन्हें कई भागों में वाँटना पड़ा है। पहले भाग में प्राचीन भारत की सभ्यता-संस्कृति का दूसरे देशो में किम प्रकार विकास हुआ था, इसकी झलकियाँ है । दूसरे भाग में विदेशों में संस्कृत- साहित्य पर जो काम हुए थे एवं जिन कामों के कारण यूरोपीय समाज में भारत के प्रति दृष्टि बदली थी-उन सामग्रियों को संयोजित किया गया है । तीसरे भाग में विश्व के अनेक देशों पर विविध विषयो से संयोजित निबन्ध हैं । चौथे भाग में जीवन-चरितात्मक लेख है। पांचवे भाग में उत्तर एवं दक्षिण ध्रुव की यात्रा का रोमांचक वर्णन है, साथ ही पुरातत्त्व संबंधी दो लेख । छठे भाग में विभिन्न देशों की जंगली जातियों यानी जन- जातियों पर समाजशास्त्रीय लेख हैं। परिशिष्ट में दो लेख रखे गये हैं। पहला-'भारत- वर्ष का वैदेशिक संसर्ग' इसमें लाला हरदयाल के एक अंग्रेजी लेख का मारांश प्रस्तुत करते हुए द्विवेदीजी ने अपनी बात कही है। दूसरा लेख एक सीरीज़ की तरह 'सरस्वती' में प्रकाशित हुआ था-'यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें'। यह जून, 1913 से नवम्बर, 1913 की 'सरस्वती' के पांच अंकों में प्रकाशित हुआ था। पहले चार लेख त्रिमूर्ति शर्मा एवं अंतिम त्रिविक्रम शर्मा नाम से प्रकाशित हुआ था। त्रिविक्रम शर्मा अनेक नामों की तरह ही द्विवेदीजी का एक छप नाम था। त्रिमूर्ति शर्मा भी एक छम नाम