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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१२

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8/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली था, पर इस नाम से संभवतः माधवराव सप्रे लिखा करते थे। इस लेखमाला को परिशिष्ट में दिया जा रहा है। इस खण्ड के पहले भाग का पहला लेख है-'पेरू का प्राचीन सूर्य-मन्दिर'। इस लेख के प्रारम्भ में द्विवेदीजी पेरू राज्य का सामान्य परिचय देते हुए बताते हैं कि अमेरिका को ढूंढ़ निकालने का श्रेय कोलम्बस को दिया जाता है, परन्तु उसके पाँच-छह सौ वर्ष पहले ही नारवे के रहने वालों ने उसका पता लगाया था। उनमें कई वहीं पर बस गये थे एवं अमेरिका के प्राचीन निवासियों के साथ व्यापार करते थे। फिर किसी कारणवश वे अमेरिका से नारवे लौट गये। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है । 'बौद्धों द्वारा अमेरिका का आविष्कार' में वे दूसरे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य से परिचित करवाते हैं कि सबसे पहले बौद्ध ही थे जो अमेरिका महादेश में पहुंचे थे और जिन्होंने अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म का वहाँ की जन-जातियों में प्रचार-प्रसार किया था, जिनके अवशेष अब भी वहाँ पाये जाते हैं । बौद्धों ने जिन तंत्र-मंत्र, जादू-टोना का प्रचार वहाँ के रेड-इंडियन्स में किया था, वह बाद में [लैटिन अमेरिका में] कुछ स्पेनिश लोगों द्वारा अपनाया गया और उसकी परम्पग अब भी कायम है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारक्वेज ने इन्हीं तांत्रिको आदि के जादू-टोने का चित्रण अपने कथा-साहित्य में करके 'जादुई यथार्थवाद' का उद्घोष किया है । पूरे अमेरिका में पेरू की सभ्यता बहुत विकसित थी। द्विवेदीजी वहाँ के सूर्य- मन्दिर को देखकर अनुमान लगाते हैं कि जरूर भारत के किसी महापुरुष ने पेरू पहुँच कर सूर्य-पूजा का प्रचलन वहाँ करवाया होगा। क्योंकि [द्विवेदीजी के मत में] बौद्ध लोगों का चीन, जापान, तिब्बत, लंका, कोरिया, सुमात्रा, जावा और बोर्नियो आदि देशों और द्वीपों को जाना तो मिद्ध ही है । इसलिए सूर्य और गणपति आदि के उपासकों का अमेरिका जाना असंभव नहीं। माथ ही एक तथ्य यह भी है कि पेरू का जो सूर्य- मन्दिर है, उसकी बनावट एवं आकृति, झांसी के पास, उनाव गाँव में स्थापित सूर्य-मन्दिर से मिलती है । इन दोनों मन्दिरों की मूर्तियों में भी साम्य है । इम क्रम का दूसरा लेख है-'प्राचीन मिश्र में हिन्दुओं की आबादी'। इस लेख में भी द्विवेदीजी प्राचीन भारतवासियो की दुर्जय-यात्रा का चित्रण करते हुए मिथ में प्राचीन आर्यों की मभ्यता-संस्कृति के विषय में अनेक प्रमाण देते हैं । द्विवेदीजी बताते हैं कि प्राचीन मिश्रवाले हिन्दुस्तानियों ही के वंशज थे। मार्टन नाम के एक साहब ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि मसाला लगे हुए मुर्दो की मो में अस्सी खोपड़ियां आर्य जाति की थी । भारत के समान मिश्रवाले भी कई वर्गों में विभक्त थे। मिश्र की साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी कब्रों में जो लकड़ियाँ पायी गयी है, वे सिर्फ भारत में ही होती हैं। 'बाली-द्वीप में हिन्दुओं का राज्य', 'कम्बोडिया में प्राचीन हिन्दू-गज्य', 'अफगानिस्तान में बौद्धकालीन चिह्न', 'जावा और सुमात्रा आदि द्वीपों में प्राचीन हिन्दू-सभ्यता' जैसे निबन्धों को लिखकर द्विवेदीजी ने प्राचीन भारतवासियों की साहसिक समुद्री यात्राओं को दर्शाते हुए विभिन्न द्वीप-दीपान्तरों में स्थापित अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को सप्रमाण दर्शाया है । ये निबन्ध भारतीय इतिहास के अविस्मरणीय पन्ने हैं, ,