पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१३३

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एक तरुणी का नीलाम / 129 की गुलाम कुमारिकाओं का बाजार-भाव क्या है। जब कोई आदमी किसी चीज़ की खरीद करना चाहता है, तब वह उसके गुणों का वर्णन भी सुनना चाहता है। बहुत अच्छा; जब मैं अपना नीलाम करने पर उतारू हूँ, तब अपना वर्णन भी अपने ही मुंह से क्यों न कर दूं। सुनिए- "मैं तरुण हूँ, समझदार हूँ, पढ़ी-लिखी हूँ, शिष्ट हूँ, व्यवहारज्ञ हूँ, मच बोलती हूँ, विश्वासपात्र हूँ, न्यायनिष्ठ हूँ, काव्यरसज्ञ हूँ, तत्त्वज्ञ हूँ, उदार हूँ-सबसे बड़ा गुण मुझ में यह है कि मैं स्त्रीत्व के सर्वोच्च गुणों से विभूषित हूँ। मेरे भूरे नेत्र बड़े बड़े हैं। मेरे ओठों से सरसता टपकती है। मेरे दाँत अनार के दाने हैं। मैं अपने को सुन्दरी तो नहीं कह मकती, पर मेरी शकल सूरत बहुत ही लुभावनी है। मेरा चरित्र खूब उच्च और दृढ़तापूर्ण है । हाव-भाव भी मुझ में कम नहीं है। दिल मेरा छोटा नही, बहुत बड़ा है। कभी कभी मैं बहुत ही विनोदशील हो जाती हूँ ! मैं खुशमिजाज होकर अपनी प्रतिष्ठा का हमेशा खयाल रखती हूँ। पढ़ने-लिखने में मैं खूब दिल लगाती हूँ। मैं धाम्मिक तो हूँ, पर धर्मान्ध नही । मैं सीना तो नहीं जानती, पर पहनने के कपड़े बहुत अच्छे काट सकती हूँ; और काटना ही मुशकिल काम है । दुकान में रखे हुए भले बुरे मांस की मुझे पहचान नही; पर खिलाने पिलाने में मै बड़ी होशियार हूँ। मिहमानो को खुश करना मै बहुत अच्छा जानती हूँ। हिसाब लगाने में मैं कच्ची हूँ, पर अच्छे अच्छे किस्से कहना मुझे खूब आता है।" यह इस अमेरिकन तरुणी के इश्तहार का कुछ अंश है। इसने अपने इश्तहार में यह भी लिख दिया है कि, कौन सर्वश्रेष्ठ बोली बोलने वाला है, इसका फैसला करना मेरे ही हाथ में है। मैं जिसे चाहूँगी, उसी की लगाई हुई कीमत क़बूल करके उसके हाथ अपने को बेच दूंगी। सुनते हैं, बहुत लोगो ने इस कुमारी के साथ शादी करने की इच्छा जाहिर की है । ये सब सभ्यता के चोचले है। देखते जाइए, यूरप और अमेरिका के सभ्य समाज में क्या क्या गुल खिलते है ! [जून, 1907 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'संकलन' पुस्तक में संकलित।