पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५

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सम्पाकीकः/11 शब्दों में सुनिए-"मारकुइस ईटो उदारता की प्रत्यक्ष मूर्ति हैं। उन्होंने अनेक होनहार युवकों की वित्त बाहर महायता की है। वे युवक इस समय जापान में बहुत अच्छे-अच्छे पदों पर अधिष्ठित हैं। चीन के कोठलो हंग-चंग की तरह अगर वे भी चाहते तो अपरिमित धन संचय कर लेते । परन्तु वे अत्यन्त सत्य-प्रिय, संतोषी और नेक-नीयत आदमी हैं । अनुचित मार्ग से द्रव्य इकट्ठा करना वे महान पातक समझते हैं। -इस समय भूमण्डल के भिन्न-भिन्न देशों के जिनने प्रधानमन्त्री हैं, मारकुइम ईटो उन सब में सबसे कम धनी हैं।" और अंत में, द्विवेदीजी उनके बारे में ये शब्द कहते हैं-"नीति-पटना मे वे चाणक्य हैं, देशभक्ति में वे विलियन पिट हैं; दृढ़ता और माहस मे वे वाशिंगटन हैं; मन्धि-विग्रह में वे विस्मार्क है । ऐसे मारकुइम ईटो के अनवरत परिश्रम से उन्नत और उत्साहित हुआ जापान इस समय संसार के मबसे अधिक बलवान राज्य से भिड़कर उसे उसने पछाड़ दिया । इस तरह उसने अपने नि मीम माहस और रण-कौशल से संसार को चकित कर दिया है ।" जापान की रूस पर जीत एशिया वाले खासकर भारतवासियों के मन में एक नवीन माहस और उत्माह का संचार कर रहा था । द्विवेदीजी ये विवरण देते हुए कितनी स्फूर्ति और ओज में थे, यह उनके शब्दों से झलकता है। इसी युद्ध के सन्दर्भ में उन्होंने रूम के सेनानायक जनरल कुगेपाटकिन का जीवन-चरित लिला । कुरोपाटकिन के सैन्य संचालन में रूम कई. दिग्विजय कर चुका था। उसकी जापानियों द्वारा निरन्तर हार को देखते हुए द्विवेदीजी मानो हर्ष से भरे हुए थे । वे लिखते हैं- कुरोपाटकिन का नाम हमारे देशवासियों में से पहले प्रायः बहुत कम लोग जानते रहे होंगे। परन्तु जब से रूम और जापान का युद्ध छिडा है, तब से जनरल कुरोपाटकिन का नाम सबकी जबान पर है । आपने अमानुपी वीरता के काम किये हैं; आप साहस और शौर्य की मूर्ति हैं; बल में आप भीमकाय भीम के समान हैं। आपके सेना-नायकत्व की बहुत बड़ी शोहरत है। परन्तु ऐसे विश्वविख्यात वीर के द्वारा संचालित सेना को खर्वाकार यानी बौन] भतखौवे जापानी पराजय पर पराजय देते चले जा रहे है । उस की समग्र स्थल-सेना का नायकत्व स्वीकार करके पुनः-पुन परास्त होते देख कुरोपाटकिन अपने मन में क्या कहते होंगे, यह नहीं जाना जा सकता । क्या पीत-वर्ण जापानी कुरोपाटकिन के पूर्व संचित यश को बिल्कुल ही काला कर देंगे ?' इस नन्हे-से जापान की यह वीरता, रण-कौशल आश्चर्य में डाल देने वाली थी। इमसे जापान का महत्त्व पूरी दुनिया में सिद्ध हो गया और जापान एशियावालो के आत्म-गौरव का सम्बल बना। जापान की इम उन्नति का राज क्या था; इसका खुलासा द्विवेदीजी ने सितम्बर, 1912 की 'सरस्वती' में मिकाडो मुत्सू हीटो की संक्षिप्त जीवनी प्रस्तुत करते हुए किया। इन लेव के प्रारम्भ में वे कहते हैं-"जिस नन्हे-से जापान ने हाल ही में संसार की महाशक्ति रूस को रण- क्षेत्र में पछाड़ा था, जिसके बल और वैभव, उन्नति और पराक्रम का इतने थोड़े ही काल में विकास होते देख संसार के बड़े-बडे उन्नतिशील देशों तक को आश्चर्य से दांतों तले उँगली दबानी पड़ी थी और जिसने अपने वल द्वारा संसार की महान् से महान जातियों की पंक्ति में खड़े होने का स्वत्व प्राप्त करके पूर्व के नीचे झुके हुए सिर को ऊपर उठाया था, उसे इस उन्मतावस्था को पहुंचाने के सबसे बड़े सूत्रधार, उसके सम्राट मुत्स होटो, का