10 / महावीरसाद द्विवेदी रचनावली पुस्तक में संकलित चार संस्कृतज्ञ विद्वान हैं-हर्मन जी० जैकोबी, डाक्टर जी० थीबो; मुग्धानलाचार्य एवं डॉक्टर कीलहान । अरबी भाषा के विद्वान हैं-एडवर्ड हेनरी पामर । ये सभी जीवन-चरित इस खण्ड में संकलित हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि विजेता जाति जिस देश पर अपना अधिकार करती है, उसकी सभ्यता, संस्कृति, उद्योग-धंधों को ही सिर्फ नष्ट नहीं करती, अपितु उसके जातीय गौरवशाली इतिहास को भी समाप्त कर देती है, मदियों से संचित उस देश के ज्ञान-विज्ञान और साहित्य को समाप्त करने के लिए वहाँ के ग्रंथों को भी जला डालती है। भारत में ऐसा ही लम्बे समय तक मुसलिम आक्रमणकारियों ने किया। अंगरेजो को आक्रामकता इनसे कम नही थी या ऐसा नही है कि उन्होंने हिन्दुस्तान मे अपना हिसक रूप नहीं दिखलाया, परन्तु अँगरेज-जाति में एक सबसे बड़ा गुण था कि उसका साहित्य-प्रेम बहुत ही वढा-चढ़ा था। इसी साहित्य-प्रेम के कारण वहाँ के कई विद्वानों ने सस्कृत-साहित्य पर काम करते हुए अपना जीवन बिता दिया। द्विवेदीजी ने 'अंगरेज़ो का साहित्य-प्रेम' निबन्ध में इस बात को दर्शाया है । तीसरे भाग मे विविध-विषयक निबन्ध हैं। इन निबन्धों में द्विवेदीजी की विश्व राजनीतिक चेतना बेहद मुखर है। पहला निबन्ध कोरिया पर है। इसमें कोरिया के इतिहास की एक झलक दिखलाने के बाद उसकी वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर द्विवेदी जी ने प्रकाश डाला है । वे लिखते है-कोरिया में रूस का मंचार जापान की आँखों का कांटा हो रहा है; वह उसे बहुत खटकता है। रूस का माहात्म्य यदि कोरिया में बढ़ा तो जापान की शक्ति कुछ अवश्य ही क्षीण हो जायगी। अतएव जापान की हानि सर्वथा मम्भव है। फिर एक ऐमी शक्ति का पाम आ जाना, जिसकी राज्य-बुभुक्षा कभी शान्त नहीं होती, कदापि मंगलजनक नही हो सकता। इस लेख के अन्त में द्विवेदीजी बताते हैं- "इम समय यही कोरिया-नरेश दो नृपति-सिंहों के पेचे में पड़े हुए हैं । यद्यपि उनसे, इन दोनों में से कोई भी शत्रु-भाव नहीं रखता, तथापि यह रणाग्नि, जो इस समय सुलग रही है, उन्हीं के देश को ग्राम करने के लिए है।" यानी जापान और रूस का जो युद्ध छिड़ा, उमका मुख्य कारण कोरिया था। 1894 ई० मे जापान का चीन के साथ जो युद्ध हुआ था, उमका कारण भी कोरिया ही था। द्विवेदीजी लिखते हैं-"1894 तक ह्वनी ई का गजन्व. चीन की रक्षा मे, अखण्डित बना रहा। परन्तु इम वर्ष जापान ने कोरिया के ऊपर चीन का स्वत्व स्वीकार न किया। चीन और जापान के युद्ध का यह भी एक कारण हुआ । इस युद्ध में जापान विजयी हुआ। चीन के माथ उसकी सन्धि हुई। मन्धि में चीन ने कोरिया पर अपने प्रभुत्व का दावा छोड़ा। तब से कोरिया ने जापान की रक्षा में रहना कबूल किया।" द्विवेदीजी ने जुलाई, 1904 की 'सरस्वती' में जापान के मारकुइस ईटो का जीवन-चरित लिखकर प्रकाशित किया, जिसके प्रारम्भ में वे कहते हैं-"जिम विलक्षण प्रतिभाशाली पुरुष ने जापान को अल्पकाल ही में इस योग्य कर दिया कि उमने मंसार में मबसे बड़े शक्तिशाली देश, रूम को परास्त कर दिया, उसका नाम ईटो है।" ईटो का चरित कितना महान् था, इसकी बानगी भी द्विवेदीजी के ही
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