पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुकों का उत्थान और पतन लगभग छ: मौ वर्ष बीते कि तुर्क नाम की एक छोटी सी जाति उद्दण्ड मंगोल लोगो के भय से अपने घर, मध्य एशिया, से भागकर आरमीनिया प्रदेश में पहुंची। वहाँ के सेलजूक- वंशीय बादशाहों ने उसे अपनी शरण में लिया । चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में, मंगोल लोगों ने सेलजूक-साम्राज्य पर चढाई कर दी। उसकी समाधि पर एक छोड़ दस छोटे- छोटे राज्य स्थापित हुए । भगोड़ी तुर्क जाति के तत्कालीन अधिपति का नाम था उममान । वह भी इस विप्लव से लाभ उठाने में पीछे न रहा। उसने भी कुछ भूमि दबा ली और राजा बन बैठा। अपने साहस और बुद्धि-वैभव से उसने अन्य राजो को भी शीघ्र ही अपने अधीन कर लिया । तुर्कों का वही पहला स्वतन्त्र राजा हुआ । तुर्को में उसी के नाम पर पहले-पहल सिक्के चले और ममजिदो मे खुतबा पड़ा गया। उसी के नाम पर तुर्क लोगों का नाम 'उममानी' और उनके भावी साम्राज्य का नाम 'उसमानी साम्राज्य पड़ा' । योरप की भाषाओ में, इसी 'उसमानी' शब्द का अपभ्रंश आटोमन हो - गया। 1359 में, मुराद (प्रथम) तुर्कों का राजा हुआ। उसने अपना हाथ योरप की ओर बढाया । योरप के दक्षिण-पूर्व में बालकन नाम का एक प्रायद्वीप है । उस समय उम पर कान्सटैन्टीनोपिल के ईसाई सम्राट का शासन था। मुराद ने बालकन के एक बड़े भाग को बलवत् अपने अधीन कर लिया । योग्प की ईसाई शक्तियाँ मुमलमानो के इम दबदवे से बहुत घबगई। कई ईमाई राजो ने मिलकर मुराद पर आक्रसण कर दिया। 1389 में घोर युद्ध हुआ और मुगद माग गया। परन्तु विजयी मुसलमान ही रहे । इस विजय से सबिया देश उनके हाथ लगा। धीरे-धीरे तुओं ने ईसाई गजो से बलगेरिया भी छीन लिया। पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य काल में वे हंगरी राज्य की सीमा तक पहुँच गये । योग्प में वे पहुँच तो दूर तक गये थे, ईसाई जातियों में उनकी धाक भी खूब बैठ गई थी, लोग उनके मुक़ाबले मे आने से भी भय खाने लगे थे, परन्तु अभी तक वे बायजण्टाइन साम्राज्य की राजधानी, कान्मटैन्टीनोपिल नगरी को, जो उनके विजित देशो के एक कोने ही में पड़ती थी, न जीत सके थे। तुकों की यह परम अभिलापा थी कि वे ईमाइयों के इस पुनीत नगर पर अपनी सत्ता जमावें । इसलिए उन्होंने उसे कई बार घेरा भी, परन्तु वे सफल-मनोरथ न हुए । 1451 में मुहम्मद द्वितीय तुर्को का गजा हुआ। वह वीर और साहसी था। माथ ही उसका हृदय उच्चाकांक्षाओ से भी पूर्ण था। उसने अन्त में, वह काम भी कर दिखाया जिसके लिए तब तक तुर्क लालायित थे। 1453 में, उसने कान्मटैन्टीनोपिल घेर लिया। घमासान युद्ध हुआ । अन्त में तुर्कों की तोपों के सामने दुर्ग की दीवारें खड़ी न रह सकी । ईसाइयो का सारा परिश्रम और आत्मोत्सर्ग निष्फल हुआ। उनका सम्राट भी युद्ध करते