पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५१

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तुर्कों का उत्थान और पतन / 147 करते धराशायी हुआ। ईसाई संसार से परम पवित्र स्थान सेण्ट सोफ़िया नाम के गिरजा- घर पर ईसाई धर्म का सूचक 'क्रास' न रह सका । उम पर इमलामी चन्द्रमा चमकने लगा । विजयी मुहम्मद ने सगर्व नगर में प्रवेश करके उस नई ममजिद में नमाज पढ़ी। कान्सटैन्टीनोपिल तुर्को की गजधानी बना। तुर्की गजा सुलतान हुए और उनका गज्य हुआ तुर्की साम्राज्य । आज इसी साम्राज्य को हम तुर्की या उसमानी माम्राज्य के नाम से पुकारते हैं। इम विजय के कारण मुहम्मद योरप के इतिहास मे विजयी मुहम्मद के नाम मे प्रसिद्ध है। इसके बाद वह चुपचाप न बैठा रहा । उसने योरप में अपना राज्य और भी बढाया । क्राइमिया और बोमनिया को जीता। ग्रीकों के द्वीप-समूह के कितने ही द्वीपों को उसने अपने अधिकार में कर लिया। उमका विचार इटली और स्पेन पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित करने का था; परन्तु, 1481 मे, उसकी मृत्यु हो गई । 1512 में, मलीम प्रथम सुलतान हुआ। वह भी बड़ा प्रतापी बादशाह था। उसने तुर्की साम्राज्य को और भी प्रशस्त किया । वह फ़ारिस की बहुत सी भूमि दवा बैठा। सीरिया और मिस्र को भी उसने जीता । उसका पुत्र सुलेमान भी पिता के मदृश ही हुआ । उसने योरप के कुछ कुछ द्वीपों, तथा अफरीका के अलजियर्स और ट्रिपोली को ले लिया। हंगरी के राजा तक उसे कर देने लगे। इस सुलतान के समय में तुर्क लोग उन्नति की चरम सीमा तक पहुंच गये । उसकी सेना प्रथम श्रेणी की समझी जाती थी। उनका जहाजी बेड़ा भी इतना बड़ा था कि समुद्री युद्ध में उस समय कोई भी उसकी बराबरी न कर सकता था। उनकी पहुँच भी दूर दूर तक थी। हंगरी और आस्ट्रिया तो उनका घर-द्वार या। जर्मनी के मैदानो तक वे धावे मारते थे। सुलेमान के बाद उसका पुत्र सलीम द्वितीय सुलतान हुआ। वह अपने योग्य पिता का अयोग्य पुत्र निकला। उसी के समय से तुर्की साम्राज्य के पतन का आरम्भ हुआ। इसके बाद जो सुलतान हुए, उनमें से अधिकांश अयोग्य ही नहीं, किन्तु दुराचारी, दुर्व्यसनी, डरपोक और निर्बल थे । साम्राज्य में सुशासन न रहा । अत्याचार, लूट-मार और दुराचार की वृद्धि होने लगी। जो जिसके मन में आता था, सो करता था। सेना को वश में रखना मुशकिल था। कितने ही सुलतान तुर्की सेना के हाथों मारे गये। बग़ावतें शुरू हो गई । सुलतानों का नाको दम आ गया। ईसाइयों पर अत्याचार होने लगे। टर्की की इस दुरवस्था के कारण उसके पड़ोसी राज्य, आस्ट्रिया और रूस, दिन पर दिन बलवान् होते जाते थे । अन्त मे टर्की को निर्बल समझकर, 1739 में, रूस और आस्ट्रिया ने ईसाइयों की रक्षा के बहाने उससे युद्ध ठान दिया। यद्यपि टर्की का पतन हो रहा था, तथापि, अभी तक, वह इतना निर्बल न हो गया था कि उसे जो चाहता, हरा देता। आस्ट्रिया को हारना पड़ा। उसने और उसके मि + रूस ने टर्की को कुछ ले-देकर अपना पीछा छुड़ाया। इस घटना से टर्की को सबक सीखना था। पर वह आँखें मूंदे अपनी पुरानी मस्त चाल से चलता रहा और कई बार ठोकरें खाने पर भी न चेता। इसका फल जो होना था, वही हुआ। 'सेण्ट सोफ़िया' नाम के गिरजाघर को तुर्कों ने मसजिद बना डाला, यह ऊपर