- कावागुची की तिब्बत-यात्रा / 157 पुस्तक में अच्छी तरह किया है । आप लासा में 15 महीने तक रहे । इसी से आप वहाँ के लोगों के जातीय जीवन से भली भांति परिचित हो सके । लासा में कई व्यापारी ऐसे थे जिन्होने कावागुची को दार्जिलिंग में देखा था। वे जानते थे कि ये जापानी हैं; पर मित्र होने के कारण वे इस बात को कही प्रकट न करते थे। बाक्सर-विद्रोह के समय से जापान की कीति तिब्बत में भी फैलने लगी थी। जापान एक बलाढ्य राज्य है; युद्ध में चीन को भी उससे हार माननी पड़ी-इस बात की चर्चा कहीं कहीं बराबर सुनने आती थी । कावागुची 1901 के मार्च महीने में लासा आये थे। पर एक बरस से अधिक बीत जाने पर भी उनके चीनी होने में किसी को कुछ भी सन्देह न हुआ। किन्तु ऐसी गुप्त बात कब तक छिप सकती थी। कावागुची के किसी मित्र ने ही-इनका अपकार करने की इच्छा से-अन्त मे दलाई लामा के ज्येष्ठ भ्राता मे कह दिया कि ये चीनी नही, जापानी हैं । कावागुची ने यह बात सुनी तो उन्हें बडा दुःख हुआ वे जान गये कि उनको और उनके मित्रों को अब किसी भारी विपद् में फँमना पड़ेगा। उन्होंने मन्त्री महाशय से यथार्थ बात कह दी। मारे परिवार मे शोक छा गया । लोगो को बडी चिन्ता हुई । दयाई मन्त्री और उनकी स्त्री ने कावागुची को यही राय दी कि-"आप इस नगर को शीघ्र ही छोड़ दें। शिगाजे नगर के लामा के आने के उपलक्ष्य में, इम समय, खुशी मनाई जा रही है । लोगों का ध्यान अभी कुछ दिनों तक आपके भागने की ओर आकृष्ट न होगा। हम लोगों की कोई चिन्ता आप मत कीजिए।" बड़े दुःख और भय के साथ कावागुची, 1902 ईमवी की 29 मई को, लासा से विदा हुए । रास्ते मे आपको पाँच सरकारी फाटक या घाटियां पार करनी पड़ी। किन्तु आप कही रोके-टोके न गये । सरकारी अफ़सरों के लिए इतना ही जानना बस था कि यही महाशय सेरा-मठ के प्रसिद्ध वैद्य हैं । किसी ख़ाम मतलब से कलकत्ते जा रहे है । वहाँ से फिर शीघ्र ही लौट आवेंगे । कावागुची मकुशल दाजिलिग पहुँच गये। वहाँ वे बड़े आनन्द से रहने लगे। किन्तु उन्हें रात-दिन इस बात की चिन्ता लगी रहती थी कि उनके भागने के बाद तिब्बत सरकार ने उनके मित्रो की क्या दशा की होगी। अक्टूबर महीने में उन्हें मालूम हुआ कि उनके मित्रों की लासा मे बड़ी दुर्दशा हो रही है । वे जेल में भूखों मर रहे हैं । उनकी प्रार्थना सुनने वाला कोई भी नही। मन्त्री महाशय, अर्थ-सचिन, सेरा-मठ के अध्यापक और आपसे इलाज कराने वाले गरीबों पर भी आफ़त आई है। कावागुची को यह सब सुन कर बड़ा दुःख हुआ। किन्तु उन्होंने ऐसे समय में अपना धैर्य न छोड़ा। आप काठमांडू जाकर नेपाल के महाराज से बड़ी नम्रता से मिले । उनसे आपने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । दलाई लामा के नाम से आपने एक पत्र लिखा । उसको नेपाल-नरेश के ही एक अफ़सर से उनके पास भिजवा दिया। इसके दो बरस बाद कावागुची को यह सुन कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आपका पत्र पाने पर तिब्बत-सरकार ने सब लोगों को कारा- गार से मुक्त कर दिया। कावागुची को दार्जिलिंग से लासा तक कोई 2500 मील पैदल चलना पड़ा था।
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१६१
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