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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१७

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सम्पादकीय | 13. के नरसंहार एवं कलकत्ते के ब्लैक होल यानी काल-कोठरी का विवरण द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' में लिखा था, जिनमें से दूसरे को रचनावली के तीसरे खण्ड में संयोजित भी किया गया है । कलकत्ते की कालकोठरी सर्वथा एक काल्पनिक चित्रण था, ऐसा द्विवेदीजी ने बाद में 'सरस्वती' मे प्रमाणित भी किया। वे इशारा इस ओर कर रहे हैं कि साम्राज्यवादियों द्वारा जो अत्याचार एवं कत्ले-आम किये गये, उन्हें वे छिपाते थे। गोरों द्वारा कालों पर किये गये अत्याचार को दर्शाने के लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ शुरू किये गये गांधी जी के आन्दोलन को आधार बनाकर 'निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम' निबंध लिखा । इन्ही कालो में बुकर टी० वाशिगटन, जो नीग्रो जाति के थे, अमेरिका में एक बड़े व्यक्तित्व के रूप में उभरते है, तो द्विवेदीजी उनकी जीवनी 'सरस्वती' के पाठकों के लिए प्रस्तुत करते है। बुकर टी० वाशिंगटन की मृत्यु पर वे पुनः एक टिप्पणी लिखते हैं और उनके कार्यों को याद करते है। द्विवेदी जी इस काली जाति के महापुरुष को स्मरण करते हुए कहते है-"भारत को भी ऐसे ही मच्चे कर्मवीरों की आवश्यकता है। परमात्मा इस दीन भारत में भी एक-आध बुकर पैदा करने की कुपा करें।" 'लीग ऑफ नेशन्स का खर्च और भारत' निबन्ध में आगे द्विवेदीजी लिखते है-"नये जीते हुए देशों के निवासियों पर विजेता जाति, कभी-कभी भीषण अत्याचार कर बैठती है, यह तो इतिहास-प्रसिद्ध ही है । मिश्र, सीरिया, काँगो, रीफ प्रांत बालकन प्रदेश, कोरिया आदि के निवासियो के साथ कैसे-कैसे सलूक किये गये है, यह बात इतिहास-प्रेमियों और समाचार-पत्रों के पाठको से छिपी नही। योरप के कितने ही देश पशुबल में बहुत समय से प्रबल हो रहे है। इसी से उन्होने अनेक अन्य निर्बल देशों को जीतकर उन पर अपना प्रभुत्व जमाया है। इस प्रभुत्व-जमौवल के कारण उन्हें बहुधा वहाँ के निवासियों पर जोरो-जुल्म भी करना पड़ा है और अब भी करना पड़ता है। चीन में इस समय क्या हो रहा है और बाक्सर-विद्रोह के समय क्या हुआ था, ये सब घटनाएँ उसी पशुबल और आतंक-जमौवल के उदाहरण है। भारत भी इसका शिकार हो चुका है और किसी हद तक अब भी इसका शिकार है।" यह है द्विवेदीजी की साम्राज्य-विरोधी चेतना । यूरप की सभी साम्राज्यवादी ताकतें इस लिप्सा में शामिल थीं और जहाँ उनके स्वार्थ टकराये, वे एक-दूसरे से भिड़ पड़ी और प्रथम विश्वयुद्ध का भीषण संग्राम छिड़ पड़ा । इस युद्ध में छल-बल से जर्मनी को पराजित कर दिया गया, पर इन सभी देशों की जन-बल-धन की हानि हुई, तब उन्होंने 'लीग ऑफ नेशन्स' नामक संस्था की बुनियाद मिलजुलकर डाली। पर इसमें बोलबाला शक्तिशाली, का ही रहा और यह लीग उन्हीं के हित-साधन में लगा रहा। द्विवेदीजी बताते हैं कि "इसके नियमों में एक नियम यह भी है कि यदि कोई देश किसी देश-विशेष पर अकारण ही, अथवा किसी क्षुद्र कारण से आक्रमण करे तो शान्ति-सभा उसकी रक्षा करेगी। पर रीफों के सरदार अब्दुल करीम पर अभी उस दिन फ्रांस और स्पेन के तथा सीरिया पर फ्रांस के जो आक्रमण हुए उनसे इस लीग ने उन देशों की रक्षा तो दूर, उन आक्रमणों के विषय में विशेष चर्चा तक अपने अधिवेशनों में न की। इधर विदेशी राज्यों के विशेषा- धिकारों के कारण चीन में जो उत्पात हो रहे हैं, उन पर भी इस सभा ने टीका-टिप्पणी समृद्ध देशों