पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१७५

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निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम | 171 अफ़रीका में बहुत सन्तोषजनक काम किया। अफरीका वाले इनके परिश्रम और इनकी कार्य-दक्षता पर बड़े प्रसन्न हुए। पर कारणवश यह शर्तबन्दी, 1866 ईसवी में, तोड़ दी गई। शर्तबन्दी टूटते ही अफ़रीका में फिर मजदूरों की कमी हो गई। अतएव 1877 ईसवी से फिर हिन्दुस्तानी मजदूर अफ़रीका जाने लने। तब से दस-पन्द्रह वर्षों तक अफ़रीका में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को सब तरह से आराम रहा। कुछ समय बाद ट्रान्सवाल वालों को भारतीयों का वहाँ रहना खटकने लगा। अपनी मिहनत और अपनी किफ़ायतदारी से भारतवासी खेती और व्यापार आदि से बहुत रुपया पैदा करने लगे थे। इससे ट्रांसवाल वालों ने अपनी हानि समझी। अतएव उन्होंने 1885 ईसवी में एक कानून बनाकर हिन्दुस्तानियों का विरोध आरम्भ किया। क़ानून यह बना कि कोई भी भारतवासी यदि वहाँ व्यापार के लिए रहना चाहे तो उसे एक नियत फ़ीस देकर अपना नाम रजिस्टरी कराना पड़ेगा। साथ ही सफ़ाई के लिहाज से हिन्दुस्तानियों ही को नहीं, सारे एशियावासियों को शहर के बाहर एक नियत स्थान पर रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे नेटाल में भी यही हवा चली। वहाँ भी 1894 में, हिन्दुस्तानियो का हिन विर. आरम्भ हो गया। पहले केवल हिन्दुस्तानी मजदूर ही अफ़रीका जाते थे। जब यहाँ से व्यापारी और व्यवसायी लोग भी वहां जाने लगे, तब वहाँ के रहने वालो को यह बात असह्य-सी हो गई। उन्होंने काले और गोरे में भेद रखना चाहा । इस विषय का एक क़ानून वे बनाने लगे। वह यदि बन जाता तो हिन्दुस्तानियों का नेटाल जाना एक दम ही बन्द हो जाता । पर प्रसिद्ध राजनैतिक मिस्टर चेम्बरलेन के उद्योग से वह कानून न बन सका। उसके बदले एक ऐसा कानून बना, जिसमें शिक्षा-विषयक एक शर्त रक्खी गई । शर्त यह थी कि जिस भारतवासी की शिक्षा की इयत्ता अम हो, वही वहाँ जा सके। नेटाल में यह कानून 1897 ईसवी में 'पास' हुआ। बस, तभी से नेटाल में हिन्दुस्तानियो के दुःखो का आरम्भ हुआ-तभी से हिन्दुस्तानियों के सत्वों पर आघात आरम्भ हुआ। उधर ट्रान्सवाल में तो उनकी पहले ही से दुर्गति हो रही थी। ट्रान्सवाल में बोअरों के साथ जब ब्रिटिश गवर्नमेंट की लड़ाई छिड़ी, तब यह आशा हुई कि सरकार के विजयी होने पर हिन्दुस्तानियों का दुःख दूर हो जायेगा। पर यह आशा व्यर्थ हो गई। तब से उनके दुःख-कष्ट और भी बढ़ गये। बोअरों के राज्य में नाम रजिस्टर कराने और 45 रुपये वार्षिक कर देने का कोई कानून न था। पर, उनका राज्य जाने पर यह कानून जारी हुआ कि जो नाम दर्ज कराने के लिए 45 रुपये न दे, उसे 150 से 1500 रुपये तक जुर्माना और 14 दिन से 6 महीने तक की सजा भुगतनी पड़े। पहले लैसन्स लेकर ट्रान्सवाल भर में एशियावासी व्यापार कर सकते थे। अब वही लोग ऐसा र सकते थे जिनके पास लड़ाई के पहले के लैसन्स थे। नये व्यापारियों के शहर के बाहर एक ख़ास जगह पर ही व्यापार करने या दुकान खोलने के लिए लैसन्स मिलने लगे । हिन्दुस्तानियों को शहर के बाहर एक नियत जगह पर रहने का हुक्म था ही, अब यह भी हुक्म हुआ कि वे कोई जायदाद न खरीदें और बिना आज्ञा के एक स्थान से दूसरे स्थान को न जायें। उनके नाम-धाम की खबर