पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२२१

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लेडी जेन ग्रे/ 217 - यथासमय जेन ग्रे और उसके पति पर राजद्रोह करने का अपराध लगाया गया। इस अपराध को उन दोनों ने, बिना किसी विरोध के, स्वीकार किया। अतएव उनके शिरच्छेद की आशा हुई । जेन ग्रे के पिता को भी कारागार जाना पड़ा; परन्तु गनी मेरी ने उसे क्षमा कर दिया। रानी मेरी बड़ी दयालु थी। उसकी इच्छा न थी कि जेन ग्रे और उमके पति को प्राणदण्ड दे। इसीलिए बहुत दिनो तक उनको वैसे ही कारागार में उसने रहने दिया । कारागार में जो कष्ट होते हैं वे भी जेन ग्रे और डडले को नहीं सहन करने पड़े। यह सब गनी मेरी की दया ही का फल था। परन्तु जेन ग्रे के पिता का स्वभाव बहुत ही बुरा था। कारागार से छूट कर उमने फिर रानी मेरी के प्रतिकूल विद्रोह करना चाहा । इसीलिए रानी मेरी ने जेन ग्रे और उसके पति को जीता रखना उचित न समझा। 12 फरवरी 1554 ईमवी का दिन उनके शिरच्छेद के लिए नियत किया गया । जेन ग्रे ने केवल 10 दिन राज्य किया। कोई सात महीने कारागार में रह कर वधस्थान को जाने के लिए वह तैयार हुई। राती मेरी 'रोमन कैथलिक' मम्प्रदाय की थी। रानी मेरी ने अनेक धर्मोपदेशको द्वारा जेन ग्रे को कहला भजा कि यदि वह अपना मत छोड कर उसके मत को स्वीकार कर ले तो वह उसका अपराध क्षमा कर देगी। परन्तु जेन ग्रे ने अपना मत नहीं छोड़ा । वह बड़े नाहम और धैर्य के साथ, अपना जी कड़ा करके, अपने मत पर आरूढ़ रही। धन्य इम 18 वर्ष की अबला की दृढ़ता ! मरने के पहले जेन ग्रे ने अपने पिता को एक पत्र लिखा, जिसका सारांश यह था-"जिस पिता के द्वारा ईश्वर ने मुझे इतनी शीघ्र मृत्यु भेजी उस आज्ञा को मैं शान्नचित होकर मानती हूँ। मेरे समान थोडी उम्र की अजान अवला के हाथ मे इगलैंड का राज्य बहुत दिन तक रखने की अपेक्षा शीघ्र ही उसका अन्त करने के लिए ईश्वर को मैं धन्यवाद भी देती हूँ"। रानी मेरी को भी उसने एक पत्र लिखा । उसका आशय यह था- "आप का दिया हुआ दण्ड मुझे मान्य है । तथापि जिस दशा मेमैं ने राज्य का सूत्र अपने हाथ में लिया उस दशा का विचार करके ईपवर मुझे बहुत ही अल्प अपराधिनी समझेगा । इस पर मुझे पूरा विश्वास है । बलपूर्वक मेरे सिर पर राज-मुकुट रखने का संस्कार केवल मेरी देह ही को हुआ; मेरे अन्तःकरण को नहीं हुआ। मेरा मन सब प्रकार निरपराधी है"। [अप्रैल, 1904 में प्रकाशित । 'वनिता विलास' पुस्तक में संकलित ।]