पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२२६

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-222 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली तुर्किस्तान के इस युद्ध में कुरोपाटकिन की योजना जनरल स्कोवेल्फ़ की अधीनता में हुई । वहाँ कुरोपाटकिन पर किसी कारण से स्कोबेल्फ नाराज हो गये। अतएव उन्होंने कुरोपाटकिन को एक ऐसा काम सौंपा जिसे करके उनके जीते लौट जाने की कोई आशा न थी। कुरोपाटकिन ने अपने जनरल की इस आज्ञा को बड़ी धीरता और बड़ी दृढ़ता से सुना । वे जरा भी चंचल नहीं हुए। उन्होंने उस काम को सफलता पूर्वक करके लौट आने का मन ही मन प्रण किया । उनको हुक्म हुआ कि वे दुश्मन की फ़ौज का पता लगा लावें। इस काम को करने के लिए उन्होंने एक कैदी का भेष बनाया । यह करके शत्रु के दल-बल का भेद लेते हुए उसकी सेना में कुछ काल तक गुप्त तौर पर उन्होंने रहना स्थिर किया। एक हफ्ता हो गया, न कुरोपाटकिन लौटे; न उनकी कोई ख़बर ही मिली। अतएव स्कोबेल्फ ने समझा कि कुरोपाटकिन का भेजा जाना व्यर्थ हुआ; उनको कामयाबी नहीं हुई। यह समझकर वे एक अन्य पुरुष को उसी काम पर भेजने का विचार कर रहे थे कि अकस्मात् एक ज्वर से पीड़ित, घायल और भूखे आदमी ने उनके खेमे में प्रवेश किया । ये आगन्तुक कुरोपाटकिन थे। वे अपने साथ जो काग़ज़ात लाये थे और जिन बातो का पता उन्होंने लगाया वे बड़े महत्त्व की थीं। इस पर स्कोबेल्फ़ को सीमातीत सन्तोष हुआ; वे अपनी पहली अप्रसन्नता को भूल गये । कुरोपाटकिन की योग्यता, साहस, बुद्धि और कौशल को देखकर वे चकित हो उठे। उस दिन से वे कुरोपाटकिन को अपना मित्र समझने लगे। उसी दिन से कुरोपाटकिन की उन्नति पर उन्नति होनी शुरू हुई। थोड़े ही समय में कुरोपाटकिन स्कोवेल्फ़ के दाहिने बाहु हो गये और जिस जिस युद्ध में स्कोवेल्फ ने सेना-नायकत्व किया उस उसमें कुरोपाटकिन ने अपने रण-चातुर्य से उन्हें बहुत ही खुश किया। ताशकन्द पर जब रूसी सेना ने कब्जा किया तब कुरोपाटकिन वहां हाजिर थे। जिस समय खोकन्द का पतन हुआ उस समय भी वे वहीं पर थे। जब बोखारा के अमीर की 40,000 फ़ौज को सिर्फ 4000 रूसी फ़ौज से हार खाना पड़ा तब वे रूसी सेना ही के साथ थे। सात दिन तक बराबर युद्ध करने पर जब रूसी फ़ौज ने संगीनों के बल खोजण्ट पर धावा किया और वहाँ से दुश्मन को मार भगाया, तब भी कुरोपाटकिन वहाँ उपस्थित थे। जिस समय सगरकन्द का फाटक खोला गया और तैमूर को इतिहास- प्रसिद्ध राजधानी के भीतर रूस के 8000 सिपाही प्रवेश कर गये, उस समय भी कुरोपाटकिन वहां थे। परन्तु इन युद्धों में शामिल होना कुरोपाटकिन ने अपने लिए कोई प्रशंसा की बात नहीं समझी। खीवा और मर्व में उन्होंने भीम विक्रम दिखलाया। यह करके भावी रूस और टर्की के युद्ध के लिए वे तैयार हुए। उस युद्ध में कुरोपाटकिन ने जो वीरता दिखाई उसकी गवाही इतिहास दे रहा है। तुर्की युद्ध से कुरोपाटकिन ने साहस और शौर्य के ऐसे ऐसे काम किये जिनको देखकर जनरल स्कोवेल्फ़ तक को दांत के नीचे उंगली दबानी पड़ी। एक बात युद्ध में स्कोबेल्फ के जितने शरीर-रक्षक और सहकारी थे सब मारे गये; बच गये केवल कुरोपाटकिन । एक अन्य महा भीषण युद्ध में घण्टे ही भर में 3000 रूसी कटकर जमीन ' पर गिर गये, परन्तु कुरोपाटकिन के वीर हृदय पर इसका जरा भी असर न हुमा । उल्टा