226 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली उपयोग मालूम नहीं, उसका पढ़ना व्यर्थ है। तर्क-शास्त्र अर्थात् न्याय, और तत्त्व-विद्या अर्थात् दर्शनशास्त्र में मिल थोड़े ही दिनों में प्रवीण हो गया। किसी ग्रंथकार के मत या प्रमाण को कबूल करने के पहले उसकी जाँच करना मिल को बहुत अच्छी तरह आ गया। दूसरों की प्रमाण-शृंखला में वह बड़ी योग्यता से दोष ढूंढ़ निकालने लगा। यह वात सिर्फ अच्छे नैयायिक और दार्शनिक पंडितों ही में पाई जाती है; क्योंकि प्रतिपक्षी की इमारत को अपनी प्रबल दलीलों से ढहाकर उस पर अपनी नई इमारत खड़ा करना सब का काम नहीं । खंडन-मंडन की यह विलक्षण रीति मिल को लड़कपन ही में सिद्ध हो गई। इसका फल भी बहुत अच्छा हुआ । यदि थोड़ी ही उम्र में उसकी तर्क-शक्ति इतनी प्रबल न हो जाती तो वयस्क होने पर इतने अच्छे ग्रंथ न लिख सकता । मिल के घर उमके पिता से मिलने अनेक विद्वान् आया करते थे। उनमें परस्पर अनेक विषयों पर वाद- विवाद हुआ करता था। उनके कोटि-क्रम को मिल ध्यानपूर्वक सुनता था। इससे भी उसको बहुत फायदा हुआ। उसकी बुद्धि बहुत जल्द विकसित हो उठी और बडे-बड़े गहन विषयों को वह समझ लेने लगा। बाप की सिफ़ारिश से मिल ने प्लेटो के ग्रन्थ विचारपूर्वक पढ़े। इतिहास, राजनीति और अर्थ-शास्त्र का भी उसने अध्ययन किया। चौदह-पन्द्रह वर्ष की उम्र में उसका गृह-शिक्षण समाप्त हुआ। तब वह देश-पर्यटन के लिए निकला। फाम की राजधानी पेरिस में वह कई महीने रहा। इस यात्रा में उसे बहुत कुछ तजरिबा हुआ। कुछ दिनो बाद, घूम-घाम कर, वह लन्दन लौट आया। तब से उसकी यथा-नियम शिक्षा की समाप्ति हुई। जितनी थोड़ी उम्र मे मिल ने तर्क और अर्थशास्त्र आदि कठिन विषयो का ज्ञान प्राप्त कर लिया, उतनी थोड़ी उम्र में और लोगो के लिए इस बात का होना प्राय: असम्भव समझा जाता है। सत्रह वर्ष की उम्र में मिल ने इंडिया हाउस नामक दफ्तर मे प्रवेश किया। वहाँ उसकी क्रम-क्रम मे उन्नति होती गई । अन्त मे वह एग्जामिनर के दफ्तर का मवसे बड़ा अधिकारी हो गया। पर 1858 ईसवी में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी टूटी, तब वह दफ़्तर भी टूट गया। इसलिए उसे नौकरी से अलग होना पडा। कोई पचीस वर्ष तक उसने नौकरी की। नौकरी ही की हालत में उसने अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखे । उमका मत था कि जो लोग केवल पुस्तक-रचना करने और समाचार-पत्रों में छपने के लिए लेख भजने ही पर अपनी जीविका चलाते हैं, उनके लेख अच्छे नहीं होते, क्योंकि वे जल्दी मे लिख जाते है। पर जो लोग जीविका का कोई और द्वार निकाल कर पुस्तक-रचना करते हैं, वे सावकाश और विचार-पूर्वक लिखते है। इससे उनकी विचार-परम्परा अधिक मनोग्राह्य होती है और उनके ग्रन्थों का अधिक आदर भी होता है । 1865 से 1868 तक मिल पारलियामेंट का मेम्बर भी रहा। वह यद्यपि अच्छा वक्ता न था, तथ जिस विषय पर वह बोलता था, उसकी दलीलें बहुत मजबूत होती थी । ग्लैडस्टन साहब ने उसकी बहुत प्रशंसा की है। एक ही बार मिल का प्रवेश पारलियामेंट में हुआ। कई कारणों से लोगों ने उसे दुबारा नहीं चुना। उन कारणों में सबसे प्रबल कारण यह था कि पारलियामेंट में हिन्दुस्तान के हितचिन्तक ब्राडला साहब
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