सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जान स्टुअर्ट मिल / 231 इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जायँ, खूब सरल भाषा में लिखी जायँ । यथासम्भव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावे। क्योकि जब लोग सीधी-सादी भाषा की पुस्तको ही को नहीं पढ़ते, तव वे क्लिष्ट भापा की पुस्तको को क्यो छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल मे आते हैं-फिर चाहे वे फ़ारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अँगरेज़ी के हों-उनका प्रयोग बुरा नही कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है, उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में आया, अथवा क्लिष्टता के कारण उसे किसी ने न पढा, तो लेखक की मिहनत ही बग्वाद जाती है। पहले लोगो में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी। इन्ही कारणों से प्रेरित होकर हमने मिल की 'स्वाधीनता' के अनुवाद में हिन्दी, उई फ़ारसी और संस्कृत इत्यादि शब्द-जहाँ पर हमे जैसी जरूरत जान पड़ी है-लिखे है। मतलब को ठीक ठीक समझाने के लिए कही कहीं पर हमने एक ही बात को दो-दो तीन-तीन तरह से लिखा है। कहीं कहीं पर एक ही अर्थ के बोधक अनेक शब्द हमने रक्खे हैं। कहाँ भूल के भाव को हमने बढ़ा दिया है और कही पर कम कर दिया है। यदि पुस्तक उपयोगी समझी गई और यदि लोगो ने इसे पढ़ने की कृपा की (जिसकी हमें बहुत कम आशा है) तो इसकी भाषा ठीक करने में देर न लगेगी। इस पुस्तक का विषय इतना कठिन है कि कही कही पर इच्छा न रहते भी, विवश होकर, हमें संस्कृत के क्लिष्ट शब्द लिखने पड़े हैं; क्योकि उनसे सरल शब्द हमें मिले ही नहीं। जून 1904 में जब हम झाँमी से कानपुर आये, तब हमने, आजकल के समय के अनुकूल, कुछ उपयोगी पुस्तकें लिखने का विचार किया । हमारा इरादा पहले और एक पुस्तक के लिखने का था । परन्तु बीच में एक ऐसी घटना हो गई जिससे हमें उस इगदे को रहित करके इस पुस्तक को लिखना पड़ा। 7 जनवरी को आरम्भ करके 13 जून को हमने इसे ममाप्त किया । बीच में, कई बार, अनिवार्य कारणो से, अनुवाद का काम हमें बन्द भी रखना पडा। किसी सार्वजनिक समाज की सार्वजनिक बातो की यदि समा- लोचना होती है तो वह समालोचना उसे अक्सर अच्छी नहीं लगती। इससे उसे रोकने की वह चेष्टा करता है । जब उसे यह बात बतलाई जाती है कि सार्वजनिक कामों की आलोचना का प्रतिबन्ध करने से लाभ के बदले हानि ही अधिक होती है, तब वह अक्सर यह कह बैठता है कि हम समालोचना को नही रोकते, किन्तु 'व्यर्य निन्दा' को रोकना चाहते हैं। अतएव ऐसे व्यर्थ निन्दा-प्रतिरोधक लोगो के लाभ के लिए हमने पहले इसी पुस्तक को लिखना मुनासिब समझा; क्योकि प्रतिबन्ध-हीन विचार और विवेचना की जितनी महिमा इस पुस्तक में गाई गई है, उतनी शायद ही कही गाई गई हो। जिस आदमी को सर्वज्ञ होने का दावा नही है, उसे अपने काम-काज की विवेचना या समालोचना को रोकने की भूल से भी चेष्टा न करनी चाहिए। और इस तरह की चेष्टा करना सार्वजनिक समाज के लिए तो और भी अधिक हानिकारक है । भूलना मनुष्य की प्रकृति है। बड़े बड़े महात्माओं और विद्वानो से भूलें होती हैं। इससे यदि समालोचना बन्द कर दी जायगी-यदि विचार और विवेचना की स्वाधीनता छीन ली