पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३६

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232 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली - जायगी-तो सत्य का पता लगाना असम्भव हो जायगा । लोगों की भूलें उनके ध्यान में आवेगी किस तरह ? हाँ, यदि वे सर्वज्ञ हों तो बात दूसरी है। व्यर्थ निन्दा कहते किसे हैं ? व्यर्थ निन्दा से मतलब शायद झूठी निन्दा मे है । जिसमें जो दोप नहीं है, उसमें उस दोप के आरोपण का नाम व्यर्थ निन्दा हो सकता है। परन्तु इसका जज कौन है कि निन्दा व्यर्थ है या अव्यर्थ ? जिसकी निन्दा की जाय, वह ? यदि यही न्याय है तो जितने मुजरिम हैं, उन सब की जबान ही को मेशन कोर्ट समझना चाहिए। इतना ही क्यो, उस दशा में यह भी मान लेना चाहिए कि हाई कोर्ट और प्रिवी कौंसिल के जजों का काम भी मुजरिमों की जबान ही के सिपुर्द है । कौन ऐमा मुजरिम होगा जो अपने ही मुंह से अपने को दोषी क़बूल करेगा ? कौन ऐमा व्यक्ति होगा जो अपनी निन्दा को सुनकर खुशी से इस बात को मान लेगा कि मेरी उचित निन्दा हुई है ? जो इतने साधु, इतने सत्यशील, इतने सच्चरित्र होते हैं कि अपनी यथार्थ निन्दा को निन्दा और दोष को दोष कबूल करते नहीं हिचकते, उनकी कभी निन्दा ही नही होती । उन पर कभी किमी तरह का जुर्म ही नहीं लगाया जाता। अतएव जो कहते हैं कि हम अपनी व्यर्थ निन्दा मात्र को रोकना चाहते हैं, वे मानो इम बात की घोषणा करते हैं कि हमारी बुद्धि ठिकाने नहीं, हम व्यर्थ प्रलाप कर रहे हैं, हम अपनी अज्ञानता को मबके सामने रख रहे है । जो ममझदार है, वे अपनी निन्दा को प्रकाशित होने देत है; और जब निन्दा प्रकाशित हो जाती है तब, उपेक्ष्य होने के कारण, या तो उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते है, या वे इस बात को मप्रमाण सिद्ध करते है कि उनकी जो निन्दा हुई है, वह व्यर्थ है । अपने पक्ष का जब वे समर्थन कर चुकते है, तब सर्व-साधारण जज का काम करते हैं । दोनों पक्षों की दलीलों को सुनकर वे इस बात का फैसला करते है कि निन्दा व्यर्थ हुई है या अव्यर्थ । हम कहते हैं कि जब तक कोई बात प्रकाशित न होगी, तब तक उसकी व्यर्थता या अव्यर्थता सावित किस तरह होगी ? क्या निन्द्य व्यक्ति को उसकी निन्दा मुना देने ही से काम निकल सकता है ? हरगिज नहीं। क्योकि सम्भव है, वह अपनी निन्दा को स्तुति ममझे; और यदि निन्दा को वह निन्दा मान भी ले तो उसे दण्ड कौन देगा? जिन लोगों के काम-काज का मर्व-माधारण से सम्बन्ध है, उनकी निन्दा सुनकर सब लोग जब तक उनका धिक्कार नहीं करते, तब तक उनको धिक्कार-रूप उचित-दण्ड नही मिलता । जो लोग इन दलीलों को नहीं मानते, वे शायद अख़बारवालों से किमी दिन यह कहने लगें कि तुमको जिमकी निन्दा करना हो या जिस पर दोष लगाना हो, उसे अखबार में प्रकाशित न करके चुपचाप उमे लिख भेजो । परन्तु जिनकी बुद्धि ठिकाने है-जो पागल नहीं हैं-वे कनी ऐमा न कहेंगे । कल्पना कीजिए कि किमी की राय या समालोचना को बहुत आदमियों ने मिल कर झूठ ठहराया; उन्होंने निश्चय किया कि अमुक आदमी ने अमृक सभा, समाज, मंस्था या व्यक्ति की व्यर्थ निन्दा की; तो क्या इतने से ही उनका निश्चय निर्धान्त सिद्ध हो गया? माक्रेटिस पर व्यर्थ निन्दा करने का दोष लगाया गया । इसलिए उसे अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। परन्तु इस समय सारी दुनिया इस अविचार के