पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२४५

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हर्बर्ट स्पेन्सर | 241 वे आप ही आप उत्पन्न हो गये हैं ? जन्म क्या है, पुनर्जन्म क्या है, मरण क्या है, धर्म क्या है, पाप-पुण्य क्या है, सुख-दुःख क्या है ? संसार में जितनी घटनायें होती हैं, किन नियमों के अनुसार होती हैं ? दिन-रात वह इन्हीं बातों के विचार और मनन में संलग्न रहता था । इन विषयो के मनन का अभ्यास उसने यहाँ तक बढ़ाया कि संसार में कोई भी ऐसा शास्त्रीय विषय शेष न रहा जो उसके मानसिक विचारो की कसौटी पर न कसा गया हो । सब विषयो का उसने विचार कर डाला । उसकी बुद्धि नये-नये सिद्धान्तो के निकालने की एक विलक्षण यन्त्र बन बैठी। कोई 50 वर्ष तक उसने यह काम किया और अपने नये नये सिद्धान्तों के द्वाग मारे संसार को चकित और स्तम्भित कर दिया। प्रसिद्ध बिद्वान् डारविन, स्पेन्सर का समकालीन था। 1851 के लगभग उसने 'आरिजिन आफ़ स्पिशीज' (Origin of Species) अर्थात् 'प्राणियों की उत्पत्ति' नाम की पुस्तक लिखी। उसमे उत्क्रान्ति, किवा परिणतिवाद, के आधार पर उसने प्राणियो की उत्पत्ति मिद्ध की । परन्तु इम उपपत्ति के अनेक सिद्धान्त स्पेन्सर ने पहले ही से निश्चित कर लिये थे।गबात को डारविन ने साफ़-साफ़ स्वीकार किया है। डारविन की पूर्वोक्ति पुस्तक के निकलने के कोई चार वर्ष बाद स्पेन्मर की 'मानमशास्त्र के मूलतत्त्व' (Principles of Psychology) नामक पुस्तक निकली। उसको लिखने में स्पेन्मर ने इतनी मिहनत की कि सिर्फ 18 महीन मे वह पुस्तक उमने तैयार कर दी । इस कारण उमकी नीरोगता मे बाधा आ गई । तबीयत उमकी बहुत ही कमजोर हो गई और कोई दो-ढाई वर्ष तक वह कोई नई किताब नही लिख सका। हाँ, दिल बहलाने के लिए मामयिक पुस्तको मे वह कभी कभी लेख लिखता रहा । इस बीच में स्पेन्मर का यश दूर-दूर तक फैल गया। 'मानसशास्त्र मूलतत्त्व' लिखने से उसका बड़ा नाम हुआ। वह अब एक विचक्षण दार्शनिक गिना जाने लगा। इस पुस्तक ने तत्त्व- प्रवाह को एक बिलकुल ही नये गस्ते में ले जाकर डाल दिया। किसी नये लेखक या नये विद्वान् के गुणों की कदर होने में बहुधा बहुत दिन लगते हैं । हर्बर्ट स्पेन्सर ने यद्यपि ऐसी अच्छी-अच्छी किताबें लिखी; परन्तु उनकी बहुत ही कम क़दर हुई । स्पेन्सर की पहली किताब 'सोशल स्टैक्टिस' को किसी प्रकाशक या पुस्तक- विक्रेता ने लेना और छपाकर प्रकाशित करना मंजूर न किया। तव स्पेन्सर ने उसकी 750 कापियां खुद ही छपवाई । उनमें से कुछ तो उसने मुफ्त बाँट दी और बाकी किताबो के बिकने में कोई चौदह-पन्द्रह व लगे ! यही दशा 'मानसशास्त्र के मूलतत्त्व' की हुई। उसे भी छपाना किसी ने स्वीकार न किया। अन्त में स्पेन्सर ही ने उसे भी प्रकाशित किया । उसे भी बिकने में दस-बारह वर्ष लगे। इन किताबो को उसने किताब बेचने वालो को कमीपान पर बेचने के लिए दे दिया था। स्पेन्सर को ये किताबें लिखने से धन-सम्बन्धी लाभ तो कुछ हुआ नहीं, हानि खूब हुई । उसने जान लिया कि इस तरह की किताबो की कदर नहीं है । हाँ, यदि वह उपन्यास लिखता तो उसे खातिरख्वाह आमदनी होती । जब इंगलैंड में इस तरह की किताबों का इतना अनादर हुआ तब यदि हिन्दुस्तान में इनके कोई न पूछे तो आश्चर्य ही क्या है ? यद्यपि स्पेन्सर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं रही तथापि वह अपनी निर्धनता जान के