240/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 1 - कालेज में भरती नहीं हुआ। अब मुशकिल यह हुई कि कालेज की शिक्षा पाये बिना नौकरी कैसे मिल सकेगी। उस समय रेलवे ही का महकमा ऐसा था जहाँ विश्वविद्यालय की सरटीफ़िकेट दरकार न होती थी। इस कारण स्पेन्मर ने रेलवे का काम मीखना शुरू किया और 17 वर्ष की उम्र में वह गंजिनियर हो गया। आठ वर्ष तक वह इस काम को करता रहा । पर विद्या का उसे ऐमा व्यमन था कि इसके आगे रेलवे का काम उसे अच्छा न लगा । उसे छोडकर वह अलग हो गया । नौकरी की हालत मे एक यंजिनियरी की सामयिक पुस्तक में वह लेख भी लिखता रहा था । इमसे लिखने में उसे अच्छा अभ्याम हो गया। 1842 ईसवी में उमने 'नान-कनफ़ारमिस्ट' (Non-conformist) नामक पुस्तक में 'राजा का वास्तविक अधिकार' नाम की लेख-मालिका शुरू की । वह पीछे से पुस्तकाकार प्रकाशित हुई इसके बाद स्पेन्मर ‘यकनोमिस्ट' (Economist)नामक एक मामयिक पुस्तक का सहकारी सम्पादक हो गया और कोई 5 वर्ष तक बना रहा । सम्पादन करना और लेख लिखना ही अब उसका एक-मात्र व्यवमाय हुआ। इसमें उसने बहुत तरक्की की। कुछ दिनों में वह लन्दन चला आया और वही स्थिर होकर रहने लगा। यहां पर उसने 'व्यस्ट- मिनिस्टर रिव्यू' (Westminister Review) मे लेख लिखने शुरू किये । इससे उसका बड़ा नाम हुआ। लिखने का अभ्याम बढ़ता गया। धीरे-धीरे उसकी लेखन-शक्ति बहुत ही प्रबल हो उठी। 30 वर्ष की उम्र में उमने 'मोगल स्टेटिक्स' (Social Statics) नाम की किताब लिखी। उसमें सामाजिक और राजनैतिक विषयों का उसने बहुत ही योग्यता- पूर्ण विचार किया । उमकी विचार-शृखला और तर्कनाप्रणाली को देखकर बड़े-बड़े विद्वानों ने दाँतों के नीचे उँगली दबाई । वह जितना ही निर्भय था उतना ही सत्यप्रिय भी था। उस समय तक इन विषयो पर विद्वानों ने जो कुछ लिखा था उसका जितना अंग स्पेन्मर ने प्रामाणिक समझा सबका बडा ही तीव्रता से खण्डन किया। प्रायः सबसे प्रति- कूलता, मबकी ममालोचना, मबका खण्डन उसने किया । किसी को आपने नहीं छोडा । पर इस पुस्तक का आदर जैमा होना चाहिए था नहीं हुआ । स्पेन्मर की बुद्धि का झुकाव विशेष करके सृष्टि-रचना और अध्यात्म-विद्या की तरफ था। यह प्रवृत्ति प्रतिदिन बढ़ती ही गई और प्रतिदिन वह इन विषयो में अधिका- धिक निमग्न रहने लगा। वह धीरे-धीरे उत्क्रान्तिवादी हो गया। उत्क्रान्ति के 16 सिद्धान्त उमने निकाले । संमार के सारे दृष्टादृष्ट व्यापार इन्हीं नियमों के अनुसार होते है । इम बात को सप्रमाण सिद्ध करने के लिए उमने अपरिमित श्रम किया। 1846-47 में उसने एक नया यन्त्र बनाकर उसका 'पेटेन्ट' भी प्राप्त किया। पर उससे उसे विशेष लाभ न हुआ । शायद अपनी अर्थकृच्छ्रता दूर करने ही के लिए उसने ऐसा किया। तथापि उमने अपनी निर्धनता की कुछ भी परवा न की। उसके कारण वह कभी दुःखित नहीं हुआ। अपना काम वह बराबर करता गया। जिन-जिन सिद्धान्तों का पता उसे लगता गया उन-उनको वह बड़ी योग्यता, आस्था और निर्लोभता के साथ प्रकट करता गया। यह सृष्टि क्या ईश्वर ने पैदा की है. या पदार्थों में ही कोई ऐसी शक्ति है जिसके कारण म.दि. 10-4 -
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