पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२७०

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266 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली । -- स्टडीज' के प्रबन्ध से या खास कमेटियों की सिफ़ारिश से । इनमें संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान् रहते हैं । बेचारे 'नेटिव' अध्यापकों पर हो इसका भार नहीं रहता। किन्तु आचार्य के समकक्ष गौरांग-गुरु टीबो, वीनिस, इविङ्, ऊलनर और फ़िलिप्स आदि भी रहते हैं । और जब बुलर, फूरर, कीलहान और पीटर्सन थे तब वे भी पाठ्य-पुस्तक-निर्वाचन करने की कृपा किया करते थे। यही नहीं, किन्तु कितने ही गौरांग विद्वान, परीक्षा भी नियत होते हैं । अतएव पाठ्यपुस्तकों और संस्कृत के परचो से यदि भारतवामी अध्यापकों की अयोग्यता झलकती है तो विलायतवामियों की क्यो नही ? इमलिए नहीं, क्योकि वे आचार्य के देश, दीप या भूमिटण्ड के वासी हैं। आचार्य मुग्धानल शायद चाहते हैं कि 'नेटिव' संस्कृताध्यापक एकदम ही कालेजों से निकाल बाहर किये जायें। उनके निकल जाने से पुस्तके भी अच्छी चुनी जाने लगेगी और परीक्षा-पत्र भी अच्छे बनने लगेंगे। एक बात और भी होगी। यह जो वी० ए०, एम० ए० वालो को काव्यप्रकाश, वेदान्त-सूत्रभाष्य और न्याय पदाना पडता है मां भी पढ़ाना बन्द हो जायगा। योरप के दिग्गज पण्डितो को ये विषय पढ़ाना मानो लोह के चने चाबना है। कई बार इन लोगों ने कोशिश करके इनका अध्यापन वन्द कराना चाहा; पर कामयाबी न हुई। मो यह बात उन्हें अब तक खटक रही होगी । साहव आचार्यों की राय है कि ये विषय संस्कृत के माधारण साहित्य के बाहर हैं। क्यों न हो ! पर विलायत के विद्यालयों मे जो ग्रोक भाषा पढ़ाई जाती है, अरिस्टाटल और प्लेटो के दार्शनिक ग्रन्थ उसके माहित्य के ठीक भीतर हैं । क्यो ? इमलिए कि उन्हें माहब लोग पढा सकते है। पर गौतन, शंकराचार्य और मम्मट के ग्रन्थो को नही पढ़ा सकते । डाक्टर मेकडानल का मबसे बड़ा आक्षेप इस देश के संस्कृतज्ञो पर यह है कि वे वैज्ञानिक किवा शास्त्रीय गति (Scientific method) से व्याकरण और पुरातत्त्वादि विषय पढ़ना-पढ़ाना नहीं जानते । अतएव जिन्हें इन विषयो का अध्ययन करना हो उन्हें विलायत ही से सम्कृत पढकर इस देश में आना चाहिए । बहुत दुरुस्त ! "यथाज्ञापयति डाक्टर भाऊदाजी, डाक्टर भाण्डारकर, डाक्टर भगवानलाल इन्द्रजी, डाक्टर राजेन्द्रलाल मिश्र, पण्डित श्याम शास्त्री आदि इम देश के विद्वान् सस्कृत पढ्न आक्मफर्ड गये थे ! जो कुछ थोड़ा-बहुत काम इन लोगो ने किया है मब आक्सफ़र्ड के 'ब्रॉडन प्रोफेसर आव संस्कृत' के शिक्षा-प्रमाद से । मुग्धानलाचार्य ने इसी तरह के कितने ही निर्मल आक्षेप इस देश के संस्कृतज्ञो पर करके सिद्ध करना चाहा है कि-'सिविल सविम' वाले आपसे संस्कृत पढ़वाकर यहाँ भेजे जाया करे और अंगरेजो को यहाँ कालेजों में अच्छी-अच्छी तनख्वाहों पर प्रोफेसरी दी जाया करे । माग मतलब यह कि आपका कलाम भरा रहे और आप के देशवामियो का पेट । स्वार्थ, तेरी जय । आपकी म्वार्थ पर और निन्दामूलक एक-एक बान का उत्तर श्रीयुन श्रीधरजी ने अंगरेजी में दे दिया है। इस बात को डेढ़ वर्ष हुए। अनाव आचार्य मुग्धानल की कालकूट-गभित उक्वियों का निदर्णन मात्र ही यहां पर बम होगा। आचार्य मुग्धानल की दो पुस्तकें यहां के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं । एक