पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२७१

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मुग्धानलाचार्य / 267 तो आपका संस्कृत-व्याकरण, दूसरा संस्कृत-भाषेतिहास। आश्चर्य है, ऐसे भारतीय- पण्डित-द्वेषी विद्वान् की पुस्तकें भारत ही में प्रचलित की गई। इन पुस्तकों में बहुत सी बातें समालोच्य है । आपका संस्कृतेतिहास और लोगों के इतिहाम की अपेक्षा ज़रूर अच्छा है; पर उसमें भी भ्रमपूर्ण बाते लिखी गई है । उनमें से एक-आध बात की समालोचना हम जून 1907 की 'सरस्वती' में कर भी चुके है। धीरे-धीरे और वातो की भी समालोचना करने का विचार है । आपकी पुस्तकों में कितनी ही भूले है और बड़ी-बड़ी भूले हैं । आपने 'बृहद्देवता' नाम की पुस्तक का जो अनुवाद अंगरेजी में किया है उसमें श्रीधरजी ने, नमूने के तौर पर, दो-एक ऐसी-ऐसी ग़लतियाँ बतलाई है जिन्हें देखकर मुग्धानलजी की संस्कृत-सम्बन्धी अनता किवा अल्पज्ञता पर दया आती है। हमारे विश्वविद्यालय के नायको ने मुग्धानल का सस्कृत-व्याकरण, कालेज की प्राम्भिक पाठ्य-पुस्तको मे, रक्खा है । उमी को पढ़कर भारतीय युवक सही-मही सस्कृत लिखना और बोलना सीखते है । आपका रचा हुआ संस्कृत-भाषेतिहास बी०ए० में पढ़ाया जाता है । उमका तेरहवा अध्याय दृश्य-काव्यो के विषय मे है । उममे आचार्य ने संस्कृत- नाटकों के दा-चार पद्यों का अनुवाद अंगरेज़ी में दिया है। उसके विषय में बहुत कुछ कहने को जगह है। दुष्यन्त शकुन्तला को देखकर और उसकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर मन ही मन कहता है- मरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं मलिनमपि हिमांगोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति । इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुगणां मण्डनं नाकृतीनाम् ? राजा लक्ष्मणसिंह-कृत इमका अनुवाद यह है- सरसिज लगत सुहावनो यदपि लियो ढकि पक। कारी रेख कलंकहू लसति कलाधर अक ।। पहरे बल्कल बसन यह लागत नीकी बाल । कहा न भूषण होइ जो रूप लिख्यो विधि भाल ।। शकुन्तला के रूप-वर्णन की यह बहुत ही सरस और मनोहारिणी उक्ति है। सहृदय मात्र इसके प्रमाण है । परन्तु कालिदास की यह उक्ति मुग्धानल को नही भाई । आपने कालिदास के उस श्लोक को अच्छा समझकर अनुवाद किया है जिसमें कवि ने शकुन्तला की उपमा लता से दी है । श्लोक यह है अधर: किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणौ बाहू । कुसुममिव लोभनीयं यौवनमङ्गेषु सन्नद्धम् ।। राजा लक्ष्मर्णासह ने इसका अनुवाद किया है-