अलबरूनी | 291 बड़े विद्वान् उन्हें देखकर मुग्ध हो जाते हैं और उनके रचयिता की हज़ार मुख से प्रशंसा करते हैं । अलबरूनी अरबी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं का उत्कृष्ट विद्वान् था। उसमें दोनों देशों के ज्ञानभाण्डार का सार-संकलन करने की असाधारण शक्ति थी। यह बात उसकी 'इंडिका' से अच्छी तरह प्रकट होती है। अलबरूनी ने भारतवर्ष-विषयक बातों की यथारीति अध्ययन करने की यथेष्ट चेष्टा की । उमने नरेशों की नामावली और लड़ाई-झगड़े की बातों को लेकर समय नष्ट नहीं किया। केवल हिन्दू-सभ्यता के निदर्शन-भूत, दर्शन, विज्ञान, गणित, ज्योतिष और विविध आचार-व्यवहारों का विस्तृत विवरण संकलित करने की उसने चेष्टा की। उम समय काश्मीर और काशी संस्कृत-शिक्षा के केन्द्र-स्थान थे। परन्तु वहाँ मुसलमानो को घुसने की आज्ञा न थी। इस पर अलबरूनी ने बडा अफ़सोस जाहिर किया है। इसीलिए सिन्ध जाकर उसने संस्कृत सीखी और वहीं से ग्रन्थों का संग्रह प्रारम्भ किया। पर बेचारा, अर्थाभाव के कारण, मनमाने ग्रन्थों का संग्रह न कर मका । इसका उल्लेख उमने 'इंडिका' में कई जगह किया है। अलब नी में सबसे बड़ा गुण यह था कि वह विद्वान् होने पर भी अध्ययनशील था और मुसलमान होने पर भी हिन्दुओं से द्वेषभाव न रखता था । यह बात 'इंडिका' के प्रत्येक पृष्ठ से प्रकट होती है । णिन्होंने उसे एक बार भी पढ़ा है वे उमके मतों की उदारता और सच्ची समालोचना-शक्ति पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। उसने जहाँ हम लोगों के आचार, व्यवहार और शिक्षा-दीक्षा के प्रतिकूल समालोचना की है वहाँ पर मूल संस्कृत-शास्त्र का प्रमाण अवश्य उद्धृत किया है। ऐसा किये बिना उसने कोई मन्तव्य प्रकाशित नहीं किया। प्रतिकूल समालोचना करते समय उसने एक जगह यह भी लिखा है- “सम्भव है कि इस उद्धृत अंश का कोई और सुसंगत अर्थ हो; परन्तु अब तक मैंने उसे नहीं सुना।" यह हम लिख चुके हैं कि अरबी और ग्रीक भाषा- विशारद अलबरूनी ने संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने के बाद 'इंडिका' रची थी। उसकी 'इंडिका' के साथ संस्कृतानभिज्ञ अँगरेज-लेखकों के ग्रन्थो की तुलना नहीं हो सकती। अलबरूनी ने जब 'इंडिका' की रचना की थी तब मुसलमान लोग भारतवर्ष को काफ़िरस्तान कहकर घृणा करते और पराजित देश समझकर उसकी उपेक्षा करते थे। इधर भारतवामी मुसलमानों को म्लेच्छ कहकर तिरस्कार करते और विजेता समझकर भय खाते थे। उस समय ग़ज़नी के सुलतान और उसके अनुगायी विजयोल्लास में मग्न होकर भारतवर्ष का वक्ष विदीर्ण करने में लगे हुए थे। ऐसे समय में एक मुसलमान का काफ़िरों का धर्मशास्त्र पढ़ना और समालोचना करने की धीरता के साथ दार्शनिक प्रणाली से प्रत्येक विषय की मीमांसा करना बड़े विस्मय में बात है। 'इंडिका' से मालूम होता है कि काफ़िर होने पर भी हिन्दू अलबरूनी के विचार में भक्ति और श्रद्धा के पात्र थे। आजकल के यूरोपियन विद्वान् कहते हैं कि इसका एक विशेष कारण था। वह यह कि जिस सुलतान महमूद ने अलबरूनी की जन्मभूमि खीवा की स्वाधीनता हरण की थी उसी ने भारतवर्ष को भी जीता था। अतएव स्वाधीनता-रत्नविजित स्वदेश-प्रेमी के
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