अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर / 305 घनिष्ठता पैदा कर लेते थे । इटालियन और फ्रेंच भाषा के वे शीघ्र ही पण्डित हो गये। नौकरी करने और विदेशी भाषायें सीखने से जो समय मिलता था उसे वे खेल-तमाणे में बिताते थे । वे नाटक बहुत देखते थे । कभी-कभी नाटक खेलते भी थे। यार-दोस्त भी उनके कम न थे। वे उनसे भी मिलने जाया करते थे। इस पर भी उन्हें फोटोग्राफी, मेस्मरेज़म और लकड़ी पर नक्काशी का काम मीखने के लिए भी ममय मिल ही जाता । था। . 1860 में उनकी भेंट, केम्ब्रिज में, सैयद अब्दुल्ला से हुई । सैयद अब्दुल्ला अवध प्रान्त के निवासी थे। वे अरबी, फ़ारसी और उर्दू के विद्वान थे। विलायत में लोगों को वे इन्ही तीनों भाषाओ की शिक्षा दिया करते थे। थोड़े ही दिनों के परिचय से अब्दुल्ला पर पामर की बड़ी श्रद्धा हो गई । वे भी उनसे पूर्वोक्त तीनो भाषायें पढ़ने लगे । पामर की बुद्धि बड़ी ही विलक्षण थी । वे मिलनसार भी परले सिरे के थे । वे जिससे मिलने वह उनके गुणों पर मुग्ध हो जाता। लखनऊ के शाही ख़ानदान के नवाब इक बाल उद्दौला उनसे भेंट करके बड़े प्रसन्न हुए। नवाब साहब बड़े ही विद्या-रसिक थे। पामर के विद्या-प्रेम से वे इतने खुश हु कि तीन वर्ष तक, जब तक वे विलायन में रहे, उन्होंने पामर को अपने ही पास रक्खा और उनकी हर प्रकार से सहायता की । विलायत प्रवासी अन्य कितने ही मुसलमान विद्वानों ने भी पामर की विलक्षण बुद्धि पर मुग्ध होकर उनकी बहुत कुछ सहायता की। पामर भी दिन और रात, अठारह-अठारह घण्टे, अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ा-लिखा करते। रात बीत जाती और प्रातःकाल का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता; परन्तु वे अपनी पुस्तक न बन्द करते ! 1863 में पामर केम्ब्रिज के सेंट जान्स कालेज में भरती हुए । वहाँ की अन्तिम परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद, 1867 में, वे अपनी फ़ारसी और उर्दू की योग्यता के कारण, वहाँ के 'फ़ेलो' चुन लिये गये। 'फेलो' नियत होने से उनकी आमदनी कुछ बढ़ गई और उनकी अर्थ-कृच्छृता जाती रही। 1870 में, सन्आ (अरब) प्रदेश की नाप-जोख के लिए कुछ लोगों को भेजने की आवश्यकता गवर्नमेंट ने समझी। उस समय एक ऐसे आदमी की भी आवश्यकता हुई जो उस देश की भाषा, अरवी, बहुत अच्छी तरह जानता हो और वहाँ की बातो, नामो, दन्तकथाओ और वीजको को अच्छी तरह पढ़ और समझ सकता हो । यह काम पामर को मिला । इसे उन्होने बहुत अच्छी तरह निबाहा। सन्आ प्रदेश से लौटने पर, वहाँ की छानवीन पर, उन्होंने दो उपयोगी पुस्तके प्रकाशित की । 1871 में पामर अरबी के अध्यापक हो गये। उसी वर्ष उन्होने अपना विवाह भी किया, परन्तु वे विवाह से सुखी न हो सके । उनकी स्त्री को क्षय-रोग हो गया । स्त्री के इलाज में पामर ने अपना सारा धन फूंक दिया और ऋणी भी हो गये; परन्तु वह न बची। 1879 में उन्होंने अपना दूसरा विवाह किया। 1870 से लेकर 1881 तक बहाउ की कविता, अरबी का व्याकरण, कुरान का अनुवाद, फ़ारसी का कोश, फ़ारसी-अँगरेजी- कोष, हाफ़िज़ शीराजी की कविता, ख़लीफ़ा हारूनुर्रशीद की जीवनी आदि कोई बीस छोटी-बड़ी पुस्तके उन्होने लिखीं। -
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३०९
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