पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३१०

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306 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 1881 में ईजिप्ट में घोर विप्लव हुआ । विप्लवकारियों का मुखिया था अरबी पाशा । वह आसपास की असभ्य मुसलमान जातियों को जिहाद के उपदेश द्वारा अंगरेज- अधिकारियों के विरुद्ध भड़काने लगा । इंगलैंड के राजनीतिज्ञ इस बात से बड़े चिन्तित हुए । उन्हें भय हुआ कि यदि असभ्य जातियाँ अरबी पाशा से मिल गई तो स्वेज की नहर की खैर नहीं, और साथ ही ईजिप्ट देश से भी हाथ धोना पड़ेगा । पामर की योग्यता की ख्याति देश भर में फैल चुकी थी। सन्आ जाकर और वहाँ निर्दिष्ट काम करके उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया था कि अरबी बोलने वाली असभ्य जातियो से काम निकालने में उनसे अधिक चतुर देश भर में कोई नहीं । अतएव गवर्नमेंट की नजर इन्हीं पर पड़ी। काम बड़ा कठिन था। ईसाइयों के विरुद्ध भड़की हुई असभ्य जातियों को अरबी पाशा से न मिल जाने का इन्हें उपदेश देना था । परन्तु पामर अच्छी तरह जानते थे कि इस काम के लिए कार्य-दक्षता के अतिरिक्त अरबी की बड़ी भारी योग्यता की भी आवश्यकता है और सिवा उनके और किसी से यह काम न हो सकेगा । यह मांचकर वे ईजिप्ट गये। उस देश की और उसके आसपास के प्रदेशों की असभ्य जातियों और उनके सरदारों से मिलकर इस बात की चेष्टा करते रहे कि वे अरबी पाशा से न मिलें। पामर ने इस काम में बड़ा साहस प्रकट किया। काफ़िरों के खून की प्यासी अमभ्य जातियों को रक्तपात करने से मना करना, या उन्हें रुपये के बल से शत्रु के साथ मिल जाने से रोकने की चेष्टा करना, कम साहस का काम न था। पर इस काम में पामर को बहुत कुछ सफलता हुई। यात्रा समाप्त करके वे स्वेज पहुँच गये; परन्तु वे वहाँ अधिक दिन न ठहर सके। उन्हें कुछ आदमियो के साथ इन अमभ्य जातियों के प्रदेश में पहले से भी गुरुतर कार्य करने के लिए फिर जाना पड़ा। इसी यात्रा मे, जब वे अपने माथियों सहित ऊँटो पर सवार एक जंगल से होकर जा रहे थे, बहुत से अरबों ने उनके ऊपर आक्रमण किया और उन्हें और उनके साथियो को मार डाला। अपने देश की सेवा करता हुआ यह विद्वान् संसार से, इस प्रकार, निर्दयता-पूर्वक, छीन लिया गया। लेख यद्यपि बढ़ जायगा तथापि, यहाँ पर, पामर साहब के लिखे हुए उर्दू और फारमी के गद्य-पद्यात्मक लेखो के कुछ नमूने देने का लोभ हम संवरण नहीं कर मकते । आक्मफ़र्ड-विश्वविद्यालय में जी०एफ० निकोल माहब, एम०ए०, अरबी भाषा के अध्यापक थे । मालूम नहीं इस समय वे जीवित है या नही । वे संस्कृत और फ़ाग्मी के भी विद्वान् थे । पामर साहब से और उनसे मित्रता थी। उन्होंने फ़ारसी के मशहूर शायर जामी और हाफिज की तारीफ़ मे कुछ कविता फ़ारसी में लिखकर पामर साहब को देखने के लिए भेजी। पामर को वह पमन्द न आई । उसे देखकर आपने एक व्यंग्य-पूर्ण कविता लिखी और निकोल साहब को भेज दी । उमका कुछ अंश नीचे दिया जाता है-- तू मीदानी जे क़ितमीरो नकीरम कि अज तहरीरे खुद मन दर नफ़ीरम । न मीआयद मरा रस्मे किताबत चे मी पुरसी जे इनशाये जमीरम ? ,