पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३२७

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बुकर टी० वाशिंगटन-1 /323 'पढ़कर कहना पड़ता है कि "नर जो पं करनी करे तो नारायण द्वै जाय।" प्रतिकूल दशा में भी मनुष्य अपनी जाति, समाज और देश की कैसी और कितनी सेवा कर सकती है, यह बात इस चरित से सीखने योग्य है । यद्यपि हमारे देश में अमेरिका के समान दामत्व नही है तथापि, वर्तमान समय में, अस्पृश्य जाति के पाँच करोड़ से अधिक मनुष्य सामाजिक दासत्व का कठिन दुःख भोग रहे हैं । क्या हमारे यहाँ, वाशिगटन के समान, इन लोगो का उद्धार करने के लिए सिर्फ शुद्धि के लिए नहीं-कभी कोई महात्मा उत्पन्न होगा? क्या इस देश की शिक्षा-पद्धति में शारीरिक श्रम की ओर ध्यान देकर कभी सुधार किया जायगा ? जिन लोगों ने शिक्षा द्वारा अपने समाज की सेवा करने का निश्चय किया है क्या वे लोग उन तत्त्वों पर उचित ध्यान देंगे जिनके आधार पर हैम्पटन और टस्केजी की संस्थायें काम कर रही हैं ? जिस समय हमारे हिन्दू और मुसलमान भाई अपने लिए स्वतन्त्र विश्वविद्यालय स्थापित करने का यत्न कर रहे हैं उस ससय यह आशा करना व्यर्थ न होगा कि भविष्यत् में हमारे यहाँ निरुपयोगी और निकम्मे ग्रेजुएटों (Superficial Graduates) की संख्या घट जायगी और परोपकारी जाति-सेवको की संख्या बढ़ जायगी। अन्त में यही प्रार्थना है कि परमेश्वर हम लोगों को अज्ञान-शृंखला के बन्धन से मुक्त होने तथा बुकर टी० वाशिंगटन के समान जातिसेवा करने की बुद्धि और शक्ति दे। [फरवरी, 1914 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'विदेशी विद्वान्' पुस्तक में संकलित ।]