पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३२९

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बुकर टी० वाशिंगटन-2 / 325 मालडेन नामक स्थान में जाकर रहने लगी। बुकर भी अपने सौतेले पिता के साथ नमक की खान में काम करने लगा। प्रातःकाल 7 बजे से लेकर रात के आठ बजे तक बुकर को वहाँ काम करना पड़ता था। पढ़ने की प्रबल इच्छा होने पर भी उस बेचारे को लिखने पढ़ने के लिए समय कहाँ था ! इसी से वह अन्य लड़कों को स्कूल जाते देख कुढ़ा अवश्य करता था । बहुत कुछ कहने सुनने पर रात्रि-पाठशाला में पढ़ने के लिए उसे आजा मिल गई। परन्तु ऐसी पढ़ाई से बुकर की तृप्ति न हुई । इसलिए बड़े उद्योग के बाद उमने दिन के स्कूल में जाने की आज्ञा इस शर्त पर प्राप्त की कि वह स्कूल जाने से पहले और पीछे कम से कम चार घण्टे कारखाने में काम अवश्य करे। यह सौभाग्य भी उसको बहुत दिन तक प्राप्त न हुआ । उसके लालची मौतेले पिता ने फिर दिन भर के काम में बुकर को जोत दिया। नमक की भट्ठी छोड़ कर वह कोयले की खान में बहुत दिन तक काम करता रहा । इम काम से वह और भी अधिक असन्तुष्ट था । एक दिन उसको पता लगा कि काले आदमियों के लिए हैम्पटन नामक स्थान में एक अच्छा स्कूल है। इस पर बुकर को यह तो ज्ञात हो गया कि हैम्पटन में शिक्षा प्राप्त करने की उसकी आशा पूर्ण हो सकती है। परन्तु वहाँ वह जाय कैसे, इम बात की वह दिन रात चिन्ता करने लगा। इसी बीच में उसे पता लगा कि एक स्थानीय स्वेतांग स्त्री को एक नौकर की आवश्यकता है। इस स्त्री के यहाँ आज तक कोई नौकर टिका ही न था । लड़के उसके सामने जाते काँपते थे । परन्तु बुकर ने यह नौकरी कर ली और काम करके शीघ्र ही उस गौरांगिनी महिला को इतना प्रसन्न कर लिया कि वह बुकर को नौकर नहीं, किन्तु अपने घर का आदमी समझने लगी। बुकर ने अपनी जीवनी 'Up from Slavery' में लिखा है कि इस स्त्री से उसने बहुत कुछ सीखा। डेढ़ वर्ष नौकरी करके बुकर ने कुछ अपनी जाति के लिए किया वह अमरीका में काले और गोरे चमड़े बाली जातियों में एक दूसरे के प्रति सद्भाव पैदा करना है । आज अमरीका में काले और गोरे में उतना भेद नही रहा 'जितना तीस वर्ष पूर्व था। और कम से कम जहाँ तक उनका निज का सम्बन्ध था वहाँ तक तो काले गोरे का भेद बिलकुल ही नष्ट हो चुका था । कोई बड़ी सभा ऐसी न होती थी जहाँ वे बुलाये न जाते हों। दावतों में, नाच-रंग आदि सामाजिक उत्सवो में, वे आदरपूर्वक निमन्त्रण पाते थे। बड़े से बड़े विश्वविद्यालयों ने उन्हें अपनी बड़ी से बड़ी आनरेरी उपाधियाँ देकर अपने को कृतार्थ समझा। सारे देश ने उन्हें यथेष्ट आदर करने को हाथ बढ़ाया। अमरीका के स्वयं प्रेज़िडेंट ने उन्हें अपने साथ भोजन करने को राज- भवन में बुलवाया । जब वे इंगलैंड, सन् 1898 में, गये तब महारानी विक्टोरिया ने भी उनको अपने साथ चा-पानी के लिए निमन्त्रित किया । सच है, बढ़ता वही है जो दूसरों को आगे बढ़ाता है, जो स्वदेश-प्रेमी है, जिसका लक्ष्य परोपकार है, और जिसे पुरुषार्थ तथा परमात्मा पर भरोसा है। जब हबशी जाति स्वतन्त्र हुई थी तब हर व्यक्ति को 'पोलिटिकल (राजनीति) हकूक' प्राप्त करने की बड़ी प्रबल इच्छा थी। अमरीका में हर कार्य 'वोट' (सम्मति) के अधीन था। हबशियों की संख्या भी बहुत थी । इसलिए कोई हबशी गवर्नर, कोई जज