पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३३७

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सिंहल द्वीप के बौद्ध विद्वान् आचार्य सुमंगल / 3333 उन्हें अपने माता-पिता की आज्ञा माननी ही पड़ी। सुमंगल के गुरु का नाम था अनुगामी रेवतक थीरो। साधु-दीक्षा लेने पर सुमंगल का पूरा नाम हुआ हिक्कादुआ श्री सुमंगल । मठ में प्रवेश करते ही उन्होंने अपने गुरु से पाली भाषा पढ़ना आरम्भ किया। जो अवकाश मिलता उसमें वे अपने के कामों की देख-भाल भी करते । बारह ही वर्ष की उम्र में वे पाली अच्छी तरह लिखने- पढ़ने लगे । तब उन्होने संस्कृत पढ़ना चाहा । उम ममय, लंका में, पाली की कुछ चर्चा भी थी, क्योंकि लंका-निवासी अधिकतर बौद्ध है और बौद्ध धर्म का पाली से घनिष्ठ सम्बन्ध है । परन्तु संस्कृत और संस्कृतज्ञो का तो वहाँ बहुत ही टोटा था । सौभाग्यवश, उस समय, काशिनाथ नाम के एक संस्कृत-विद्वान् दक्षिणी भारत से लंका के कोलम्बो नगर में आये । सुमंगल उनके पास मबसे पहले पहुँचे। उनके शिष्यो में सुमंगल ही सबसे अधिक तेज भी थे। संस्कृत पढने में मुमंगल को मानसिक परिश्रम तो करना ही पड़ता था; परन्तु उन्हें तदर्थ जो शारीरिक परिश्रम करना पड़ता था उस पर विचार करके यही कहना पड़ता है कि वर्तमान काल में ऐसे विद्या-प्रेमी बहुत ही थोड़े निकलेगे जो विद्योपार्जन के लिए इतना परिश्रम करने के लिए तैयार हों। उनके शिक्षक काशिनाथ कोलम्बो में रहते थे, पर सुमंगल का मठ कोलम्बो से आठ मील दूर था । परन्तु इस दूरी की कुछ भी परवा न करके वे रोज़ मठ से कोलम्बो पढ़ने जाते थे और सन्ध्या को अपने घर लौट जाते थे । इस प्रकार संस्कृत पढ़ने के लिए, वर्षों तक वे प्रति- दिन कोलम्बो से मठ तक, और मठ से कोलम्बो तक सोलह मील पैदल चलते थे। शिक्षा समाप्त होने पर सुमंगलजी अपने गुरु की पाठशाला का काम देखने लगे। दो वर्ष के बाद वे अपने गाँव गये । वहाँ उन्होंने एक विद्यालय स्थापित किया और सात वर्ष तक उसमें पढ़ाते रहे। इसके अनन्तर वे लंका के भिन्न-भिन्न नगरों में विद्यादान और उपदेश-कार्य करते फिरे। 1866 ईसवी में उनकी विद्वत्ता और शुद्ध-चरित्रता पर मोहित होकर सिंहली बौद्धों ने उन्हें आदम-शिखर (Adams Peak) के प्रसिद्ध मठ का प्रधान महन्त निर्वाचित किया। तब से वे अपना सारा समय बौद्ध धर्म तथा पूर्वी भाषाओ के प्रचार में लगाने लगे। 1873 ईसवी में उन्होने, कोलम्बो में, विद्योदय नाम का एक बड़ा कालेज स्थापित किया । मृत्यु तक वे इस कालेज के अध्यक्ष रहे । उनका कालेज प्रसिद्ध भी खूब हुआ। भारत, ब्रह्म देश, स्याम, कम्बोडिया, चीन और जापान तक के विद्यार्थी उममें पढ़ने के लिए आने लगे और अब भी बराबर आते है । उसमें संस्कृत, पाली और सिंहली भाषाओं के साहित्य के अतिरिक्त ज्योतिष और आयुर्वेद भी पढ़ाया जाता है। कोई और कहीं का भी विद्यार्थी क्यों न हो, वह उसमें पढ़ सकता है । जाति, वर्ण या धर्म का कुछ भी ख़याल नही किया जाता। गवर्नमेंट उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर चुकी है और एक हजार रुपये वार्षिक सहायता देती है। विद्या और धर्म का प्रचार करके ही सुमंगलजी चुप नहीं बैठे। उन्होंने पुस्तक- रचना भी की। बौद्धो के 'महावंश' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ का अनुवाद उन्होंते, पण्डित बलवन्तदेव की सहायता लेकर, पाली से सिहली भाषा में किया। बालावतार-टीका और