पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३३८

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334 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावलो सिद्धान्त-संग्रह पर भाष्य भी उन्होंने लिखा । इनके सिवा और भी कितने ही उपयोगी ग्रन्थ उन्होंने लिखे और कितनी ही टीका-टिप्पणियाँ बनाई। सुमंगलजी की स्मरण-शक्ति गज़ब की थी। विद्यार्थि-दशा में उन्होंने जो कुछ पढ़ा था सो तो पढ़ा ही था । जब वे दूसरों को पढ़ाते और अन्य उपकारी कामों में लगे रहते थे तब भी उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा था। अपनी धारणा-शक्ति और दृढ़ता के बल से वे भिन्न-भिन्न देशों की बारह भाषाओं के ज्ञाता हो गये। अँगरेजी, फ्रेंच, पोर्चुगीज़, ब्रह्मी. तैलंगी, तामिल और हिन्दुस्तानी भाषाओं को वे अच्छी तरह लिख, पढ और बोल सकते थे। वे गणित-शास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता थे। अंक-गणित, रेखा-गणित, बीज-गणित, त्रिकोणमिति, माप-विद्या आदि में उनकी यथेष्ट गति थी। आयुर्वेद का भी उन्हें ज्ञान था । शास्त्रार्थ में तो वे एक ही थे। बड़े-बड़े विद्वानों को भी उनके सामने झुकना पड़ता था। वे बड़े ही सरल-चित्तथे। जो उनसे मिलता उनके शील की प्रशंसा किये बिना न रहता। विदेशों में भी वे बहुत प्रसिद्ध थे। योरप और अमेरिका के बड़े-बड़े विद्वान् उनसे मिलने के इच्छुक रहते । यद्यपि ज्योतिष के नवग्रह उन पर प्रसन्न न थे तथापि सुमंगलजी सदा नीरोग रहे और चौरासी वर्ष की पक्की उम्र में परलोक के प्रवासी बने। केवल लंका वालों ही को नहीं, किन्तु सारे बौद्ध-संसार को उनकी मृत्यु से बड़ी ही क्षति पहुंची। सुमंगलजी के मित्रों में सर मानियर विलियम्स, अध्यापक रीज़ डेविड्स, कर्नल आलकाट आदि अनेक विद्वानों की गणना है। परलोकवासी स्याम-नरेश ने, अपनी योरप-यात्रा के समय, कोलम्बो में सुमंगलजी को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया था। कलकत्ते के संस्कृत-कालेज के प्रधानाध्यापक आचार्य सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने, कई महीने तक, सुमंगलजी के चरणों के पास बैठकर पाली भाषा और बौद्ध-ग्रन्थों का अवलोकन किया है । बनारस के जैन यशोविजय-पाठशाला के भी कई छात्र सुमंगलजी के शिष्य हैं और उनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा है । । [फरवरी, 1915 की 'सरस्वती' में प्रकाशित । कोविद-कीर्तन' में संकलित।