पाताल-प्रविष्ट पापियाई नगर किमी ममय विम्यूवियम पहाड़ के पास, इटली में, एक नगर पापियाई नाम का था। रोम के बडे-बड़े आदमी इस रमणीय नगर मे अपने जीवन का शेषांण व्यतीत करते थे। हर एक मकान चित्रकारियों से विभूषित था । इद्र-धनुष के समान तरह-तरह के रंगो मे रँगी हुई दूकानें नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थी। हर सड़क के छोर पर छोट- छोटे तालाब थे, जिनके किनारे भगवान् मरीचिमाली के उत्ताप को निवारण करने के लिये यदि कोई पथिक थोड़ी देर के लिये वैठ जाता था, तो उसके आनंद का पार न रहता था। जब लोग रंग-बिरंगे कपडे पहने हुए किसी स्थान पर जमा होते थे, तब बड़ी चहल- पहल दिखाई देती थी। कोई-कोई संगमरमर की चौकियो पर, जिन पर धूप से बचने के लिये पर्दे टंगे हुए थे, बैठे दिखाई पड़ते थे। उनके सामने सुमज्जित मेजों पर नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन रकावे जाया करते थे। गुलदस्तों से मेजे सजी रहती थी। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि वहाँ का छोटे-से-छोटा भी मकान सुमज्जिन महलों का मान भंग करने वाला था। वहाँ का झोंपड़ा भी महल नही स्वर्ग था। यहां पर हम केवल एक ही मकान का थोड़ा-सा हाल लिखते हैं। उससे ज्ञात हो जायगा कि पापियाई उस समय उन्नति के कितने ऊँचे शिखर पर आरूढ़ था। पांपियाई में घुसते ही एक मकान दृष्टिगोचर होता था। उसकी बाहरी दालान रमणीय खंभो की पंक्ति पर सधी हुई थी। दालान के भीतर घुसने पर एक बड़ा लबा-चौड़ा कमग मिलता था । वह एक प्रकार का कोण-गृह था। उसमें लोग अपना-अपना बहुमूल्य सामान जमा करते थे। वह सामान लोहे और तांबे के संदूकों में रक्खा रहता था। सिपाही चारों तरफ़ पहरा दिया करते थे। रोमन देवताओ की पूजा भी इसी मे हुआ करती थी। इस कमरे के बराबर एक और भी कमरा था। उसमें मेहमान ठहराए जाते थे। उसी में कचहरी थी। इससे भी बढ़कर एक गोल कमरा था। उमके फ़र्श में संगमरमर और सगमूसा का पच्चीकारी का काम था। दीवारो पर उत्तमोत्तम चित्र अंकित थे। इस कमरे में पुराने इतिहास और राज्य-संबंधी काग़ जात रहते थे। यह कमरा बीच से लकड़ी के पर्दो से दो भागो में बँटा हुआ था । दूसरे भाग में मेहमान लोग भोजन करते थे। इसके बाद देखने वाला यदि दक्षिण की तरफ मुड़ता, तो एक और बहुत बड़ा सजा हुआ कमरा मिलता। उसमें सोने का प्रबंध था। कोचें बिछी हुई थीं। उन पर तीन-तीन फुट ऊँचे रेशमी गद्दे पड़े रहते थे। इसी कमरे में, दीवार के किनारे-किनारे, अलमारियाँ लगी थीं। उनमें बहुमूल्य रत्न और प्राचीन काल की अन्यान्य आश्चर्य- जनक चीजें रक्खी रहती थीं।
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३९५
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