414/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली इन बौनों के साथ कभी-कभी बाहर रहने वाले किसानों की लड़ाई हो जाती है। इसका कारण यह है कि ये लोग रात को उनके यहाँ से चीजें चुरा लाते हैं । इन लोगों में कोई नैतिक नियम न होने से चोरी करने में बड़ी सुविधा होती है। इन्हें ज्यों ही कोई चीज़ पसन्द आती है, त्यों ही ये उसे ले भागते हैं । इसलिए किसान कहते हैं कि यह जाति पृथ्वी से मिट जाय तो अच्छा हो । बौने यदि अस्त्र-शस्त्र से सज्जित न हों, तो कई मिलकर भी एक किसान का मुकाबला नहीं कर सकते । किन्तु यदि हाथ में अस्त्र हो, तो एक बौना भी एक बड़े अस्त्रधारी योद्धा का सामना कर सकता है । हमारे दल का एक साहसी बंदूकधारी सिपाही एक दिन एक साधारण बौने का सामना कर सका था। बौने सदा सतर्क रहते हैं । किंतु हमारे सिपाही किसी को सामने न देखकर तुरंत असावधान हो जाते हैं । इसीलिये वे मारे जाते हैं । " बौनों की देह से एक प्रकार की दुर्गधि आती है। इसीलिये यदि वे कही आस- पाम होते हैं, तो तुरंत जान लिए जाते हैं। कितनी शताब्दियों से ये लोग जंगल में रहते हैं, इसका निर्णय करना कठिन है। किसी-किसी इतिहास-वेत्ता का अनुमान है कि ये लोग कोई साढ़े तीन हजार वर्ष से यहाँ रहते हैं। इतने दिन असभ्य अवस्था में रहने पर भी ये पृथ्वी से लुप्त नही हुए । अतएव यह आशा की जाती है कि ये भविष्यत् में अवश्य ही सभ्य हो जायेंगे। 16 ['अफरीका के बौने' शीर्षक से मार्च, 1911 को 'सरस्वती' में 'पण्डित उदयनारायण वाजपेयी नाम से प्रकाशित । 'वैचित्र्य-चित्रण' पुस्तक में संकलित।]
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४१८
दिखावट